वैश्विकी : पंजशीर प्रतिरोध का भविष्य
अफगानिस्तान पर तालिबान आतंकवादियों के कब्जे के बाद पूरी दुनिया की नजर काबुल नहीं बल्कि पंजशीर घाटी पर टिकी है।
वैश्विकी : पंजशीर प्रतिरोध का भविष्य |
यह अजेय इलाका अभी तक तालिबान के कब्जे में नहीं है तथा वहां अफगान सैनिकों और नागरिकों ने आतंकवादियों के विरुद्ध मोर्चा लेने का ऐलान किया है। ‘पंजशीर प्रतिरोध का क्या भविष्य है’ इसे लेकर सुरक्षा जानकारों और राजनयिकों की अलग-अलग राय है। तालिबान और उनके पाकिस्तानी आका आस्त हैं कि जब उन्होंने अमेरिकी सेनाओं और उसकी पिट्ठू 4 लाख अफगानी सेनाओं को हरा दिया तो पंजशीर घाटी के मुट्ठी भर विरोधियों की क्या औकात है? भारत में भी बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक वर्ग का कहना है कि पंजशीर प्रतिरोध कुछ ही समय में दम तोड़ देगा।
अफगानिस्तान के ‘कार्यवाहक राष्ट्रपति’ अमरुल्लाह सालेह और पंजशीर घाटी के शेर के रूप में प्रसिद्ध दिवंगत अहमद शाह मसूद के पुत्र अहमद मसूद ने घाटी में शरण ले रखी है। स्थानीय लड़ाकूओं के साथ ही अफगान सेना के सैनिकों ने पंजशीर में एकत्र होना शुरू कर दिया है। अहमद मसूद अपने वालिद के नक्शेकदम पर चलते हुए तालिबान आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने की रणनीति बना रहे हैं। जिस समय काबुल का पतन हुआ उस समय मसूद वहीं थे। उन्होंने ताजिकिस्तान स्थित अफगान राजदूत के टेलीफोन पर संपर्क किया। राजदूत सोच रहे थे कि मसूद उनसे देश से भागने में मदद की गुहार करेंगे, लेकिन उन्हें उत्तर मिला कि हम प्रतिरोध करेंगे।
काबुल में रूस का दूतावास अभी काम कर रहा है और रूसी राजदूत तालिबान परस्त रवैया अपनाते हुए कह रहे हैं कि प्रतिरोध का कोई भविष्य नहीं है। अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंतण्रएक हकीकत है। रूसी राजदूत के अनुसार पंजशीर में करीब 7 हजार लड़ाकू मौजूद हैं। उनके पास हथियारों और पेट्रोल आदि ईधन की आपूर्ति नहीं है। ऐसे में तालिबान को गंभीर चुनौती नहीं दी जा सकती। रूसी राजदूत यह भूल जाते हैं कि पंजशीर प्रतिरोध ने परंपरागत युद्ध की बजाय छापामार युद्ध की घोषणा की है। छापामार युद्ध में एक अकेला लड़ाकू भी सैकड़ों सैनिकों पर भारी पड़ सकता है। पूरे घटनाक्रम का एक दिलचस्प पहलू यह है कि अहमद शाह मसूद के दाहिने हाथ रहे डॉक्टर अब्दुल्ला अब्दुल्ला काबुल में ही हैं। वह राष्ट्रीय मेल-मिलाप की उच्चस्तरीय समिति के प्रमुख हैं। पूर्व राष्ट्रपति हामीद करजई के साथ मिलकर वह तालिबान और पंजशीर प्रतिरोध के नेताओं के बीच पुल का काम कर रहे हैं। तालिबान ने भी फिलहाल डॉ. अब्दुल्ला और करजई को मेल-मिलाप के अपने प्रयास जारी रखने की छूट ली हुई है। यह एक आशाजनक संकेत है, लेकिन तालिबान के रवैये और जमीन पर उनके जुल्म और सितम को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वह मेल-मिलाप की कोशिश को कब तक अनुमति देते हैं।
भारत भी अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर आशा और आशंका के साथ नजर रखे हुए है। कतर के जरिये भारत ने तालिबान के साथ संपर्क भी कायम किया था। फिलहाल तालिबान ने यह भरोसा दिलाया है कि वह अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग भारत के विरुद्ध आतंकवादी घटनाओं के लिए नहीं होने देगा। उसने भारत के सहयोग से चलाई जा रही विकास परियोजनाओं की रक्षा करने का भी भरोसा दिलाया है। तालिबान के ये वादे खोखले सिद्ध हो सकते हैं। यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि तालिबान, अल कायदा और इस्लामिक स्टेट आतंकवादियों का एक साझा मंच तैयार हो गया है, जिसमें जम्मू-कश्मीर में सक्रिय जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तोयबा जैसे संगठनों की शिरकत है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई आने वाले दिनों में इन सभी संगठनों को जम्मू-कश्मीर का रुख करने के लिए तैयार करेगी। पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना के जमावड़े के बाद अब पश्चिमी-उत्तरी सीमा पर तालिबानी वर्चस्व भारत के लिए खतरे की घंटी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के लिए भी यह परीक्षा की घड़ी है। जहां तक भारतीय सेना का सवाल है, वह दो मोचरे पर एक साथ लड़ सकती है, लेकिन इसके लिए घरेलू राजनीति में स्थायित्व जरूरी है। वास्तव में यह देश के लिए संकट की घड़ी है, जिसमें सभी ़को एक सुर में बोलना चाहिए।
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