स्मृति : फादर कामिल बुल्के को याद करते हुए
प्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण की एक कविता है-‘अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों/मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत/दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही/अंग्रेजों से नफरत करना चाहता/जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया/तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते/जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं..।’
स्मृति : फादर कामिल बुल्के को याद करते हुए |
आज जब देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, हम अंग्रेजों के शासन और उनके द्वारा किए गए अत्याचार पर आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं तथा स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, हमें फादर कामिल बुल्के की भी याद आती है। वे ईसाई थे, लेकिन मन से भारतीय हो गए। बीते 17 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि थी और एक सितम्बर को उनका जन्म दिवस है। 1935 से 1947 का वह दौर, जब भारतीय पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन और फिर भारत छोड़ो आंदोलन के साथ स्वतंत्रता संघर्ष कर रहे थे, भारत छोड़ो आंदोलन के अशांत रूप ले लेने पर रेल, डाकघर, स्टेशन और थाने तोड़े और जलाए जा रहे थे, स्वतंत्रता सेनानी जेलों में ठूंसे जा रहे थे, उन पर गोलियां बरसाई जा रही थीं, उन्हीं दिनों हमारे पास फादर कामिल बुल्के भी थे जो भारत आए तो मिशनरी धर्म के प्रचार के लिए थे, लेकिन भारतीय संस्कृति से इस तरह प्रभावित हुए कि न सिर्फ भारतीयों के पक्ष में खड़े रहे बल्कि कई ऐसे उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिन्हें उनकी मृत्यु के चार दशकों बाद भी याद किया जाता है।
बुल्के ने एक स्थान पर लिखा है, ‘जब मैं 1935 में भारत पहुंचा तो मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ और दुख भी कि बहुत सारे शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं से अनिभज्ञ हैं। उन्हें अंग्रेजी में बोलने में गौरव का अनुभव होता है।’ भारत की संस्कृति उन्हें इतनी पसंद आई कि वे न सिर्फ यहीं के होकर रह गए बल्कि उन्होंने कई अद्वितीय कार्य किए। प्रेमचंद के पुत्र और साहित्यकार अमृत राय ने उनके बारे में लिखा है, ‘बार-बार यही एक बात मुझे हैरान करती रहती है कि देखो, हिन्दुस्तान में और इस हिंदी देश में वाल्मीकि को अगर छोड़ भी दें तो गोस्वामी तुलसीदास और उनके मानस और भगवान रामचंद्र का नाम जपने वाले कितने असंख्य लोग हैं, लेकिन रामकथा का सांगोपांग अध्ययन करने के लिए सात समुंदर पार से बेल्जियम के एक कैथोलिक मिशनरी को आना पड़ा। जिस अपूर्व परिश्रम से फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर यह शोध किया है, वह सबके बस की बात नहीं है। उनका ग्रंथ हिंदी का गौरव है।’
कामिल बुल्के का बेल्जियम के रम्सकैपल में एक सितम्बर 1909 में हुआ था। माता-पिता धर्मपरायण थे, हालांकि वे चाहते थे कि उनका बेटा इंजीनियर बने, मगर कामिल बुल्के पास के ही गिरिजाघर जाया करते थे और एक रोज उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें संन्यासी बनना है। विज्ञान की शिक्षा जारी रखी लेकिन धर्म की शिक्षा लेनी भी शुरू की। फिर एक दिन उन्होंने धर्म सेवा के लिए भारत आने की इच्छा प्रकट की। भारत आकर उन्होंने महसूस किया कि अगर भारतीयों की वास्तविक सेवा करनी है तो हिंदी सीखनी होगी। हजारीबाग के पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत का अध्ययन करते हुए भारतीय संस्कृति में उनकी गहरी रु चि होती गई। 1940 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन से हिंदी विशारद की उपाधि ग्रहण करने के बाद वे आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गए। फादर कामिल बुल्के ने शोध के लिए हिंदी को चुना, जबकि उनके लिए अंग्रेजी में इसे करना आसान था। उनका शोध प्रबंध ‘रामकथा-उत्पत्ति और विकास’ हिंदी में पहला शोध प्रबंध था। तब तक शोध प्रबंध को अंग्रेजी में ही प्रस्तुत किया जाता था। 1950 में प्रकाशित ‘रामकथा-उत्पत्ति और विकास’ की भूमिका में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा ने इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्व कोष कहा है। वह लिखते हैं, ‘वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है। रामकथा से संबंध रखने वाली किसी भी सामग्री को उन्होंने छोड़ा नहीं है। हिंदी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है।’ फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर उपलब्ध समस्त साहित्य का गहन अध्ययन करते हुए तर्कपूर्ण मत प्रकट किया है। फादर बुल्के के कई दूसरे ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं। इनमें से एक ‘रामकथा और तुलसीदास’ है, लेकिन रामकथा के बाद उनके जिस दूसरे कार्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया वह था उनके द्वारा तैयार किया गया अंग्रेजी हिंदी कोश जो काफी लोकप्रिय हुआ। 1950 में उन्होंने रांची के सेंट जेवियर कालेज में हिंदी एवं संस्कृत के विभागाध्यक्ष का पद संभाल लिया था। उन्होंने भारतीय नागरिकता ग्रहण कर ली थी।
वे हिंदी से जुड़ी कई समितियों में भी रहे। उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें पद्मभूषण प्रदान किया गया। 17 अगस्त 1981 को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हुआ और दिल्ली के कश्मीरी गेट के निकट निकल्सन कब्रगाह में वे दफन हुए। कामिल अरबी का शब्द है और इसका तात्पर्य योग्य और पूर्ण ज्ञाता से है। कहना गलत न होगा कि फादर कामिल बुल्के अपने नाम को सार्थक करते हैं।
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