मीडिया : तालिबान का डर और मीडिया
काबुल पर कब्जा करने से पहले ही तालिबान द्वारा पत्रकार सिद्दीकी की हत्या की खबर शुरू में इस तरह से आई कि वह अमेरिकी फौजों के साथ युद्ध कवर कर रहा था कि एक जगह फंस गया और मारा गया, लेकिन बाद का एक वीडियो बताता रहा कि तालिबानों ने उसे न केवल गोली मारी, बल्कि उसके टुकड़े कर दिए, जबकि दानिश सिद्दीकी उन पत्रकारों में था तो भारत को एक ‘हिंदू फासिस्ट स्टेट’ कहते हैं और वैसा ही लिखता था।
मीडिया : तालिबान का डर और मीडिया |
तब से अब तक कम से कम तीन पत्रकारों को तालिबान निपटा चुके हैं, और बाकी को खोज रहे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार तालिबान जर्मन रेडियो ‘ड्यूचे वेले’ के लिए काम करने वाले एक जर्मन पत्रकार को खोजते हुए उसके घर पहुंचे और उसे वहां न पाकर उन्होंने घर में रहने वालों की गोली मारकर हत्या कर दी। तालिबानों का डर हर मीडिया सीन में पसरा दिखता है। औरतें डरके मारे रोती बिलखती डरती दिखती हैं, या बुकों में दिखती हैं। लोग जान बचाकर भागते दिखते हैं, और उन पर चलती गोलियों की ‘तड़ तड़ तड़’ सुनाई देती रहती है।! दो महिला टीवी एंकरों को तालिबान घर भेज देते हैं कि अब औरतों का काम करने की जरूरत नहीं। एक एंकर रोते रोते कहती है कि हमें नहीं मालूम कि हम कब तक जिंदा हैं? जो भी एकाध एंकर नजर आई वो हिजाब पहने ही नजर आई। एक विदेशी चैनल की पत्रकार भी हिजाब पहने नजर आई। औरतों का पढ़ना बंद है। बुर्का या हिजाब अनिवार्य है। शरिया कानून लागू है।
पिछले सात दिनों से अपने मीडिया में तालिबान के ‘एक्शन’ की जो तस्वीरें नजर आई हैं, वे एकदम डरावनी हैं। लोग खौफजदा हैं। चैनलों में एक से एक खौफनाक सीनों को देख हम जैसे दर्शकों तक को डर महसूस होता है। तालिबान हर तरफ बंदूकें और राकेट लॉंचर लिए नजर आते हैं। बारह से पैंतालीस के बीच की औरतों से जबर्दस्ती निकाह कर रहे हैं ताकि जिहादी पैदा कर सकें। फिर भी मीडिया का एक हिस्सा उनको ‘आजादी का लड़ाका’ बताता है, और समझाता है कि वे बदले हुए ‘नरमदिल’ तालिबान हैं, लेकिन इस कथित ‘नरमदिली’ का न एक प्रमाण दिखता है, न एक दृश्य। कई चैनलों के लिए पहले वे ‘आतंकी’ थे अब ‘लड़ाके’ हैं। कई उनको अब भी ‘बर्बर’ और ‘आतंकी’ कहते हैं। पिछले सात दिनों से अपना मीडिया भी तालिबानी की भयानक खबरों से भरा है। प्रिंट मीडिया के संपादकीयों व अगल्रेखों में तालिबानों की राजनीति और प्रभाव का विश्लेषण जारी है, लेकिन हर टिप्पणी अमेरिका के कायराना तरीके भागने की खबर लेती है, और प्रकारांतर से तालिबानों की दुर्जेयता की कहानी कहती है।
कुछ इस्लामी कट्टरतावादी कहते हैं कि यह इस्लाम की जीत है। इसी ने अमेरिका जैसी ‘सुपर पावर’ को हराया है। कई टिप्पणीकार कहते हैं कि तालिबानों में बहुत से आतंकी जैसे अल कायदा, जैश ए मुहम्मद, लश्कर ए तैयबा, हक्कानी, हिज्बुल मुजाहिद्दीन, पाकिस्तानी आइएसआई से लेकर आइसिस के ग्रुप शामिल हैं। एक खुफिया रिपोर्ट के हवाले से कई विश्लेषक बताते हैं कि तालिबानों का अगला ‘टारगेट’ हिंदुस्तान है। वे ‘गजवा ए हिंद’ करने को आतुर हैं यानी हिंदुस्तान पर कब्जा कर अपने जैसा बनाने को आतुर।
तालिबान के प्रति सरकार क्या रुख अपनाए? इसे लेकर अपने मीडिया में तीन तरह के रुख नजर आते हैं: पहला, ये आतंकी हैं इनसे बातचीत नहीं हो सकती. दूसरा: तालिबान दो तरह के हैं-‘गुड तालिबान’ और ‘बेड तालिबान’। ये ‘बेड तालिबान’ नहीं हैं। भारत को बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहिए। तीसरा, हमें जल्दबाजी नहीं, इंतजार करना चाहिए। उनकी ‘कथनी’ पर यकीन करने की जगह उनकी ‘करनी’ देखनी चाहिए। अपना मीडिया तालिबान को लेकर सभी तरह के रुखों को दिखाता बताता है। कुछ एक्टिविस्ट और नेता तालिबान की धमक में मोदी सरकार का ‘अंत’ देखते हैं, तो कुछ हिंदुओं को और अधिक ‘एकजुट’ होते देखते हैं, यूपी के चुनाव में भाजपा को जीतते देखते हैं। कुछ एक्टिविस्ट हैं, जो तालिबान के कसीदे गाते हैं, उनके समर्थन में नाचते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो तालिबान और हिंदुओं में फर्क नहीं मानते तो कुछ ‘तालिबान’ को ‘हिंदुओं’ से बेहतर मानते हैं। उनके पास अफगानी मीडिया है, लेकिन एक सीन में भी वे नरमदिल और रहमदिल नहीं नजर आते। लगता है कि वे अपने ‘डर’ से ही शासन करना चाहते हैं, लेकिन ‘डर’ से कोई राज्य टिकाऊ नहीं होता।
| Tweet |