मीडिया : छोटे-छोटे हिटलर और गोएबल्स
आजादी के पिचहत्तर बरस का महोत्सव मनाते हुए हम लाख आजादी के तराने गाएं और विकास की बातें करें लेकिन हमें इस नये नायक/नये नेता को नहीं भूलना चाहिए जो कुछ पहले ही ‘लाल किले’ पर और फिर संसद में ‘महाभारत’ के सीन पैदा कर चुका है।
मीडिया : छोटे-छोटे हिटलर और गोएबल्स |
इस ‘नये हीरो’ के कुछ लक्षण हैं: पहला: अपनी गलती हरगिज न मानना। दूसरा: दूसरे को मार कर भी विक्टिम विक्टिम खेलना। तीसरा : मैंने ये किया तो तूने भी तो किया था। चौथा: किसी की न सुनना सिर्फ सुनाना। पांचवां :मीठी मीठी गड़प कड़वी कड़वी थू।
ये टीवी की बहसों में अपने को अक्सर ‘पल में हमलावर पल में विक्टिम’ की तरह पेश करता है। इसकी हुशियारी देख हमें गली मुहल्ले के उस उस्ताद की याद आती है, जो किसी को पीटने के बाद अपने हाथ में नाखून मार लेता है, अस्पताल से घायलावस्था का सर्टिफिकेट ले आता है और जिसे पीटा है, उसके खिलाफ एफआईआर भी लिखा देता है। ऐसा है अपना स्मार्ट हीरो।
यह हीरो, मीडिया को बताकर एक्शन करता है ताकि मीडिया उसकी खबर बनाए। फिर बाद में मीडिया में आकर अपने को ‘विक्टिम’ की तरह पेश करता है और अपने पक्ष में एक ‘सिंपेथी वेव’ बनाने की कोशिश करता है। और ‘झूठ’ बोलने की कला में तो वह हिटलर के सूचना मंत्री गोएबल्स का भी बाप है। गोएब्ल्स कहता था कि ‘एक झूठ को हजार बार बोलो तो वही ‘सच’ बन जाता है।’ लेकिन अपना हीरो इस ‘सच’ को ही ‘संदिग्ध’ बना देता है क्योंकि जानता है कि सच को संदिग्ध बनाने से सच मर जाता है, और झूठ ही सच हो जाता है। और फिर भी कोई नहीं मानता तो इतिहास लाकर पटक देता है, मैंने मारा तो तुमने और तुम्हारे पुरखों ने भी तब-तब मारा था।
इस हीरो का अहंकार ही इसका मानक है, लेकिन बड़ा होकर भी वह बच्चे जैसा व्यवहार करता है। इसके लिए ‘मीठी मीठी वाह वाह और कड़वी कड़वी थू थू’ है। वह गोविंदा की फिल्म ‘गेंबलर’ (1994) से सीध निकल कर आता है, और गाने लगता है: ‘मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करू मेरी मरजी!’ इस नायक की एक और विशेषता है कि ‘किसी की न सुनना सिर्फ अपनी कहना और किसी की न मानना सिर्फ अपनी मनवाना!’ यह उसका ‘हिटलरी’ स्वभाव है जो हमें चैनलों की खबरों में, आयोजित बहसों में, प्रवक्ताओं के तकरे में और नेताओं के बयानों में हर रोज दिखलाई पड़ता है, और जिसको सुन सुनकर हम अपने आपको भी वैसे चंट और वैसे ही छोटे छोटे हिटलर, छोटे गोएबल्स समझने लगते हैं।
मीडिया में हम हर रोज इसी तरह के नायक/नायिकाओं को गाते बजाते देखते हैं। नेता व प्रवक्ता किसी ‘महाबली’ की तरह चैनलों के फ्रेमों में बैठ जाते हैं और देर तक झूठ को सच बनाते हुए और अपनी बेशर्मी और मक्कारी पर मुस्कुराते हैं। मानो हमसे कहते हों कि अगर कुछ बनना है तो पहले हमारी तरह मारो, फिर रोओ कि उसी ने को मारा है। एक झूठ को हजार बार बोलो और अगर न बोलो तो सच को संदिग्ध बना दो और ताली मरवाओ तभी कामयाब होगे तुम। पंद्रह अगस्त के दिन तिंरगा लहराया जाता है। मीडिया तरह तरह के आदशरे की दुहाई देता है। गांधी और आजादी के योद्धाओं की बातें की जाती हैं, लेकिन उन्हीं चेहरों द्वारा की जाती हैं, जो मीडिया में हर रोल हजार बार झूठ बोलकर अपने को सच साबित करते आए हैं और हमें भी ‘झूठ की कला’ में ट्रेन करते आए हैं। पिछले ही दिन कुछ निराले सच/झूठ दिखे हैं, जो सिद्ध करते हैं कि कैमरे का दिखाया झूठ होता है, और सिर्फ नेता का कहा सच होता है। एंकर पूछता है ‘क्या आपने पेपर फाड़ा?’ तो जवाब मिलता है, ‘हां फाड़ा! सौ बार फाडूंगा!’ कर ले, क्या कर लेगा तू? ‘आपने महिला मार्शल को घसीटा और पीटा?’ ‘अरे हमने कहां पीटा। हमारी मित्र गिर रही थी, उसे बचाने के लिए हमने उसका हाथ खींचा!’
एक और हीरो जी हैं जो हमेशा गुस्से में नजर आते हैं। एक दिन एक बलात्कृता बच्ची के माता पिता के फोटो अपने ट्विटर पर डाल देते हैं जिसे गैर कानूनी मानकर ट्विटर उनके व मित्रों के अकाउंट बद कर देता है तो वो बिसूरने लगते हैं कि ये लोकतंत्र के खिलाफ है जी। जब भाजपा नेताओं का अकाउंट बंद किया गया तो ऐसे हीरो ट्विटर की आजादी की वकालत करते थे लेकिन ट्विटर ने जैसे ही उनके अकाउंट को घिस्सा मारा तो वे ट्विटर को लोकतंत्र का दुश्मन बताने लगे। फिर जब ट्विटर ने अकाउंट बहाल कर दिया तो उसे धन्यवाद तक न दिया। पिचहत्तर बरस में हमारे मीडिया ने कुछ किया हो या न किया हो पर इन छोटे छोटे हिटलरों और गोएबल्सों से हमारा परिचय जरूर करा दिया है।
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