कृषि कानून विरोधी आंदोलन : फोड़ा बना नासूर
मानने में कोई हर्ज नहीं है कि कृषि कानूनों के विरोध में चल रहा आंदोलन चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है।
कृषि कानून विरोधी आंदोलन : फोड़ा बना नासूर |
गणतंत्र दिवस परेड के बाद छह फरवरी को चक्का जाम का दूसरा शक्ति प्रदशर्न हो चुका है। भारत से बाहर रह रहे अलगाववादियों, भारत विरोधियों द्वारा इस आंदोलन का दुरु पयोग कर हित साधने की साजिश सप्रमाण सामने आ चुकी है। यह प्रश्न सबके मन में उठ में उठ रहा है कि आखिर, आंदोलन का अब क्या होगा? सरकार क्या करेगी? आंदोलनकारी क्या करेंगे? यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर, इन्हें करना क्या चाहिए? गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत से मिलने जाने वालों को देश देख हा है। संसद का सत्र होने के कारण स्वाभाविक ही इसकी प्रति गूंज सुनाई देनी थी। विपक्ष ने अपनी राजनीति की दृष्टि से सरकार को घेरने, जनता की नजर में उसकी छवि खराब करने के रूप में इसे लिया है, उनकी पूरी भूमिका इसी के इर्द-गिर्द है।
हालांकि आश्चर्य का विषय है कि ऐसे कानून, जिनकी मांग लंबे समय से की जा रही थी, इस तरह विरोध और राजनीति के शिकार हो जाएं। आरंभ में जब पंजाब से इनके विरोध में आंदोलन आरंभ हुआ तो किसी को कल्पना नहीं रही होगी कि स्थिति इस सीमा तक पहुंच जाएगी कि इसकी गूंज विदेशों में भी सुनाई पड़ेगी। ठीक है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने सिर से बला टालने के लिए आंदोलन को दिल्ली तक भेजने और उसमें सहयोग करने की रणनीति अपनाई। वे इसमें सफल हैं। अकाली दल के सामने वोट बैंक खोने का जोखिम था। धीरे-धीरे स्थिति यह बनी कि बनी कि देश में जितने भी किसान संगठन हैं, उनको लगा कि इसमें हमने शिरकत नहीं की तो हमारे संगठन का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। लंबे समय से निष्क्रिय बैठे नरेन्द्र मोदी, भाजपा और संघ विरोधी समूहों को भी अवसर और मंच मिल गया। इन सबके संपर्क में विदेशों में रहने वाले भी मोदी सरकार को बदनाम करने का महत्त्वपूर्ण अवसर मानकर सक्रिय हो गए। परिस्थितियों के कारण जो राकेश टिकैत अपना संगठन और अस्तित्व बचाने के लिए आंदोलन में शामिल हुए थे, वे इसके सर्वप्रमुख नेता बन चुके हैं। हालांकि उनका मोदी विरोधी समूहों लेना-देना नहीं रहा है, लेकिन आंदोलन ने सबको साथ जोड़ दिया है। यह परिस्थिति पहले नहीं थी।
टिकैत कह रहे हैं कि आंदोलन लंबा चलेगा। प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं के साथ बैठक में कहा कि कृषि मंत्री का प्रस्ताव कायम है और मैं तो एक कॉल दूर हूं। लेकिन इससे आगे? छब्बीस जनवरी को जिस तरह दिल्ली में ट्रैक्टर परेड के नाम पर हिंसा हुई, कानून को हाथ में लिया गया उससे आंदोलन की छवि ज्यादा खराब हुई। देश में गुस्सा और आक्रोश का वातावरण था। वह समय था जब आंदोलन समाप्त हो जाता। सारी परिस्थितियां संकेत दे रही थीं कि अनेक संगठन अब आंदोलन से अपने को अलग कर लेंगे। राकेश टिकैत ने भी मीडिया को बयान दे दिया था कि जाते-जाते मैं आप सबको बाइट देकर जाऊंगा। जो सूचना है प्रशासन के साथ लगभग बात बन गई थी। वे सम्मानजनक विदाई चाहते थे। लेकिन पता नहीं क्या हुआ पूरी परिस्थितियां उलट गई। लोग कह रहे हैं कि उनके चार बूंद आंसू में सब कुछ बदल दिया। रोते हुए उन्होंने कहा कि मैंने भाजपा को वोट दिया था, लेकिन वे किसानों को मरवाना चाहते हैं तो मैं यहां से नहीं हटूंगा। लगता है कि भाजपा के अंदर भी इसका संदेश गया अन्यथा जितनी संख्या में सुरक्षा बल साजो सामान के साथ गाजीपुर बॉर्डर पर एकत्रित थे उससे साफ था कि ये लोग नहीं हटे तो इनको बल प्रयोग द्वारा हटाया जाएगा। लगभग यही स्थिति सिंघू बॉर्डर और टीकरी बॉर्डर की थी। सरकार इस पर दृढ़ होती तो 26 जनवरी की रात से लेकर 27 की सुबह तक आंदोलन के तंबू उखड़ चुके होते।
लेकिन आंदोलन सरकार के लिए अब तक का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है। सरकार के सामने पांच बड़ी चुनौतियां हैं। पहली, प्रत्यक्ष आंदोलन करने वालों से निपटना। इसमें जो गैर-किसान नकारात्मक शक्तियां हैं, उनके पर आप बल प्रयोग कर भी सकते हैं, लेकिन जो वास्तविक किसान व गैर-राजनीतिक किसान संगठन इसमें सम्मिलित हो गए हैं, उनसे कैसे निपटें, यह बड़ा प्रश्न है। दुर्भाग्य भी है कि राकेश टिकैत के कारण जाति विशेष के लोगों ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना दिया है। खाप पंचायतें हो रही हैं। हालांकि उनमें दूसरी जातियों के लोगों को भी बुलाया जाता है लेकिन मूल संख्या और नेतृत्व जाटों के ही हाथ में है। कोई भी पार्टी कम से कम उत्तर प्रदेश में इतनी बड़ी आबादी को नाराज नहीं कर सकती। दूसरी, कानून को लेकर जो गलतफहमियां पैदा हुई हैं, वे अब विस्तारित हो रही हैं। दूसरे राज्यों में भी छोटे प्रदशर्न हुए हैं। तीसरी, बड़ी कुटिलता से कुछ लोगों ने इसे सिखों के विरु द्ध सरकार की सोच के रूप में परिणत कर दिया है। विरोध खालिस्तानी शक्तियों का है, लेकिन बताया जा रहा है कि सरकार पंजाबी और सिख के विरुद्ध है। चौथी, विपक्ष इस मुद्दे पर कम से कम इस समय सरकार विरोधी मोर्चे में एक साथ है। पांच, विदेशों में उठ रहीं आवाजों का सामना करना। यह भी कठिन है क्योंकि देश की एकता एवं अखंडता के साथ कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहुत सारे लोगों और संगठनों के खिलाफ कार्रवाई हो रही है, और आगे करनी पड़ेगी। लाल किले की घटना में लोग गिरफ्तार हुए हैं, प्राथमिकियां दर्ज हो रही हैं। जो गिरफ्तार नहीं हो रहे हैं, उन पर इनाम रखा जा रहा है।
दिल्ली पुलिस ने आंदोलन का पूरा कार्यक्रम तैयार कर भारत और सरकार को बदनाम करने वाले संदिग्ध अनाम विदेशी/विदेशियों के विरु द्ध भी प्राथमिकी दर्ज की है। हिंसा, साजिश जैसे अपराधों के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई की स्थिति नहीं होती तो सरकार के लिए आंदोलन से निपटना थोड़ा आसान होता। सरकार कानूनी कार्रवाई से पीछे नहीं हट सकती। जैसे-जैसे कानूनी कार्रवाई होगी इसके खिलाफ आक्रोश पैदा करने की रणनीति पर विरोधी आगे बढ़ेंगे। जो शक्तियां निहित स्वाथरे के कारण आंदोलन का संपूर्ण अपहरण करना चाहती हैं, वो अपराध के विरुद्ध की जा रही मान्य तथा कानून के तहत कार्रवाई को भी मुद्दा बनाने की हरकत कर रही हैं। इसे किसानों पर जुल्म कहा जा रहा है। इस नाते कहा जा सकता है कि छोटा सा फोड़ा आज नासूर बन गया।
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