वैश्विकी : बड़ी चुनौती होगा ट्रम्पवाद
अमेरिका में जो बाइडेन और कमला हैरिस का प्रशासन 20 जनवरी को कार्यभार ग्रहण कर लेगा। इस समारोह में निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भाग नहीं लेंगे।
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बावजूद इसके नये प्रशासन और अमेरिकी राजनीति में डोनाल्ड ट्रम्प और उनकी राजनीतिक विचारधारा की छाया लंबे समय तक कायम रहेगी। नये राष्ट्रपति के सामने यह विकल्प था कि वह पुरानी बातों को भूलकर देश की राजनीति और समाज जीवन में नई शुरुआत करें, लेकिन लगता है कि उन्होंने यह अवसर गंवा दिया। नये प्रशासन और डेमोक्रेटिक पार्टी ने हाल के दिनों में जो रवैया अपनाया और कदम उठाए वे ट्रम्प केंद्रित हैं।
ट्रम्प के विरुद्ध महाभियोग ही नहीं लगाया गया बल्कि दृश्य और अदृश्य सत्ता प्रतिष्ठान में ट्रम्प और उनके समर्थकों के विरुद्ध ऐलान-ए-जंग कर दिया। 6 जनवरी को अमेरिकी संसद कैपिटल हिल पर ट्रम्प समर्थकों के धावे को न्यूयार्क में ट्विन टावर पर हुए आतंकी हमलों से तौलने की कोशिश की गई। ट्रम्प को वैसा ही खलनायक घोषित करने की कोशिश की गई जैसा कि ओसामा बिन लादेन के बारे में की गई थी। ट्रम्प को नस्लवादी और फासीवादी तथा उनके समर्थकों को घरेलू आतंकवादी की संज्ञा दी गई। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी राष्ट्रपति के विरुद्ध इतनी दुर्भाग्यपूर्ण और अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया गया।
डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता यह भूल गए कि ट्रम्प को करीब साढ़े सात करोड़ मतदाताओं का समर्थन मिला था। इनमें से अधिकांश अभी भी ट्रम्प समर्थक हैं। ट्रम्प के राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी में भी बहुमत ट्रम्प के साथ ही है। ट्रम्प की विदाई के कुछ ही दिन पूर्व उनके विरुद्ध महाभियोग की कार्रवाई और विरोध अभियान का क्या औचित्य है, यह अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय है।
यह विरोध अभियान ट्रम्प के भावी राजनीतिक जीवन पर विराम लगाएगा या उन्हें पुनर्जीवन देगा, यह भविष्य की बात है। लगता है कि डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रम्प ही नहीं बल्कि उनकी विचारधारा को दफन करने पर आमादा है। परंपरागत अर्थ में ट्रम्प की कोई विचारधारा नहीं है, लेकिन उनकी सोच और नीतियों को ‘ट्रम्पवाद’ की संज्ञा दी जा रही है। ‘ट्रम्पवाद’ राष्ट्रपवादी और नस्ली रुझान वाली विचारधारा है, जो घरेलू मुद्दों पर ज्यादा जोर देती है तथा बहुसंख्यक अमेरिकी समाज और उसकी सभ्यता संस्कृति को सवरेपरि मानती है। अन्य तबकों से यह अपेक्षा होती है कि वह अमेरिका की ेत, प्रोटेस्टेंट संस्कृति, आचार-व्यवहार और उसके हितों के साथ सामंजस्य बिठाए। ‘ट्रम्पवाद’ का ऐसा उभार यूरोप के अनेक देशों में देखने को मिलता है। पश्चिमी देशों और भारत के लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवियों के अनुसार भारत में भी नरेन्द्र मोदी की सरकार भी इसी रुझान का एक रूप है।
डेमोक्रेटिक पार्टी और ट्रम्प के विरोधी इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे हैं कि ‘ट्रम्पवाद’ केवल ट्रम्प का अपना अविष्कार नहीं है। वैीकरण के बाद दुनिया में जो राजनीतिक और आर्थिक बदलाव आए हैं, उनके विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में ‘ट्रम्पवाद’ का उदय हुआ है। विगत दो दशकों के दौरान अमेरिकी प्रशासन ने दुनिया में आए बदलावों के कारण अमेरिकी जनता पर पड़ने वाले प्रभावों का न तो समुचित आकलन किया और न ही स्थिति का मुकाबला करने के लिए आवश्यक नीतियां बनाई।
विकसित देशों में अमेरिका एक अपवाद है, जहां विगत दो दशकों में देश की सबसे निचली पायदान वाले दस फीसद के जनसमुदाय की आर्थिक दशा बदतर हुई है। साथ ही विदेश नीति के मोच्रे पर अन्य देशों में सत्ता परिवर्तन की नीतियों के कारण अमेरिका पर आर्थिक और सैन्य हानि का जो बोझ पड़ा है, वह असहनीय साबित हुआ है।
इस आर्थिक और सामाजिक हालात में ट्रम्प का उदय हुआ तथा ‘ट्रम्पवाद’ अस्तित्व में आया। इस पूरे घटनाक्रम को फासीवाद, नस्लवाद और ेत वर्चस्ववाद कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
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