राग-विराग : कभी साहित्य से भी जुड़े पर्यटन

Last Updated 17 Jan 2021 04:51:09 AM IST

कुछ वर्ष पूर्व बनारस के कबीरचौरा की गलियों में ‘हेरिटेज वॉक’ की शुरुआत हुई थी, जो लोगों को उन घरों तक ले जाती थी, जिनमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गज कलाकारों ने संगीत साधना की थी।


राग-विराग : कभी साहित्य से भी जुड़े पर्यटन

कबीरचौरा की गलियों में हनुमान प्रसाद मिश्र, सामता प्रसाद (गुदई महाराज), किशन महाराज, सितारा देवी, राजन-साजन मिश्र सहित कितने ही प्रसिद्ध कलाकारों और उनके पूर्वजों के आवास हैं।  लखनऊ में प्रदेश का पर्यटन विभाग नवाबों के दौर की प्रसिद्ध इमारतों पर आधारित हेरिटेज वॉक कराता रहा है। लखनऊ की ‘सनतकदा’ जैसी संस्था भी अपने वार्षिक उत्सव के दौरान हेरिटेज वॉक का आयोजन करती रही है और नगर की सांस्कृतिक विरासत से लोगों को परिचित कराती है। अक्सर हम पर्यटन विभागों के अलग-अलग परिपथ के बारे में भी सुनते आए हैं, जो पर्यटकों को तमाम सुविधाएं प्रदान करते हुए उन्हें आकर्षित करने के लिए बनाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग ने बौद्ध, विंध्य, बुंदेलखंड, अवध, ब्रज जैसे परिपथ बना रखे हैं।  
हिंदी साहित्य में पुस्तकों की बिक्री और पठनीयता को लेकर भले ही हाय-तौबा मचाई जाती रही हो, लेकिन सच्चाई है कि हिंदी साहित्य का पाठक संसार लगातार बढ़ता ही गया है। इसके गवाह पुस्तक मेले हैं, प्रकाशन का फैलता व्यापार और हर साल बड़ी संख्या में आने वाली नई पुस्तकें हैं। हिंदी के साहित्यकारों की रचनाएं प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयों तक पढ़ाई जाती हैं, उन पर चर्चाएं होती हैं, शोध होते हैं, उनकी जीवनियां याद कराई जाती हैं। यह भी सच्चाई है कि कई प्रसिद्ध दिवंगत रचनाकार अपनी रचनाओं में तो जीवित हैं, लेकिन हम उनकी जन्म या कर्मस्थली में जाएं तो उनकी स्मृतियां प्राय: उपेक्षित मिलती हैं। साहित्यकारों के न रहने पर उनसे जुड़े स्थल खासकर उनके घर भी सुरक्षित नहीं रह पाए हैं। उन्हें ऐसे स्मारक का रूप नहीं दिया जा सका है, जहां जाकर कोई हिंदी प्रेमी, साहित्यप्रेमी रचनाकार से जुड़ी वस्तुओं को देख सके, उन्हें याद कर सके। जान सके कि उनका प्रिय रचनाकार किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करता था, उन रचनाओं का लेखन कहां किया गया, जो कालजयी बन गई।

क्या कोई संस्कृति या पर्यटन विभाग, हिंदी से जुड़ी अकादमियां या संस्थाएं कोई ऐसा परिपथ नहीं बना सकती जो साहित्यकारों से जुड़े इन स्थलों तक ले जा सके। उनके आवासों और उनसे जुड़े दूसरे महत्त्वपूर्ण स्थलों के बारे में जानकारी जुटाई जाए। उन स्थलों की स्थिति ठीक नहीं है तो उनका जीर्णोद्धार कराया जाए। उनके संपर्क मार्ग ठीक कराए जाएं। उत्तर प्रदेश में ऐसी योजना बने तो वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ, सुल्तानपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर, आगरा, झांसी जैसे नगर इसके महत्त्वपूर्ण केंद्र हो सकते हैं। और केवल हिंदी ही क्यों, उर्दू और दूसरी भाषाओं के दिग्गज रचनाकारों के स्थलों को भी इससे जोड़ा जाए। कई विख्यात पत्रकारों की स्मृतियां भी इसमें शामिल की जा सकती हैं। कोई ऐसा साहित्यकार परिपथ बने तो भारतीय साहित्य में रुचि रखने वाले देश-विदेश के पर्यटकों, छात्र-छात्राओं और शोधार्थियों को इन स्थलों पर ले जाया जा सकेगा। कितना अच्छा होगा कि कोई पर्यटक बनारस जाए तो उसे इस प्राचीन नगर के तमाम दर्शनीय स्थलों के साथ ही कबीर और तुलसी से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पराड़कर, गर्दे सहित नगर से जुड़े प्रसिद्ध साहित्यकारों-पत्रकारों के स्थलों पर भी ले जाया जाए। वह इलाहाबाद जाए तो संगम के साथ ही निराला, महादेवी, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान और दूसरे रचनाकारों की स्मृतियों में भी गोता लगाए। लखनऊ आए तो केवल इमामबाड़ा या रूमी गेट ही न जाए,  मीर, इंशा, सौदा से लेकर मजाज तक को याद करे और हिंदी साहित्य की त्रयी अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा और यशपाल की कोठियों के चक्कर भी लगा आए। आजमगढ़ में राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, झांसी में मैथिली शरण गुप्त, वृंदावन लाल वर्मा, उन्नाव में शिवमंगल सिंह सुमन, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, आगरा में अमृतलाल नागर और द्वारिका प्रसाद माहेरी के स्थलों तक भी पहुंचे।
अक्सर हम यह भी सुनते हैं कि कई देशों ने अपने साहित्यकारों की स्मृतियों को किस प्रकार सहेज कर रखा है। लंबे समय से मांग के बाद लमही में प्रेमचंद के आवास को स्मारक का रूप तो दिया जा सका है, लेकिन बनारस में ही अन्य साहित्यकारों के आवास या उनसे जुड़े स्थल आज भी उपेक्षित हैं। हमारे जीवन और समाज में साहित्य की भूमिका हमेशा से रही है, लेकिन साहित्यकार प्राय: उपेक्षित ही रह जाते हैं। शासन और उसकी अकादमियों-संस्थानों की तमाम योजनाओं के बीच कभी ऐसा कुछ हो पाता है तो यह साहित्यकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक माध्यम तो होगा ही।

आलोक पराड़कर


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