मीडिया : आंदोलन और आत्म-छवि के छल
आठ बार बातचीत हो चुकी है नवीं बार होनी है, लेकिन उसका नतीजा अभी ही बताया जा सकता है कि उसमें भी कुछ नहीं होने वाला।
मीडिया : आंदोलन और आत्म-छवि के छल |
इधर मंत्री कहते हैं कि बातचीत जारी है। उधर किसान कहते हैं कि अगर कानून वापस न लिए गए तो छब्बीस जनवरी को हम दिल्ली में ट्रैक्टर चलाकर छब्बीस जनवरी मनांएगे। ये बातें बताती हैं कि ये किसान पुराने जमाने के ‘भोले भाले’ और ‘दयनीय’ किसान नहीं हैं बल्कि ‘राजनीतिक कार्यनीति’ और ‘रणनीति’ में पारंगत, ट्रैक्टरों वाले अमीर किसान हैं और इनको सिखाने वाले भी कम नहीं हैं।
यह चालीस-पैंतालीस दिन बाद का, रोज की चरचा, बातचीत, सलाह-मशविरे से सीखता हठीला किसान है। पचासेक किसानों की शहादत ने भी उसे हमदर्दी का पात्र बनाया है। शायद इसीलिए अब यह धरना कृषि-मुद्दों का न होकर सरकार को ‘हिला सकने’ के ‘अहंकार’ का मारा होने लगा है। चालीस दिन पहले बार्डर पर आया किसान ऐसा ‘अहंकारी’ नहीं था। उसकी भाषा में ‘एमएसपी’ की मांग मुख्य मांग थी, लेकिन धीरे-धीरे उसकी भाषा लगातार बदलती गई, उसके मुद्दे बदलते गए और उसके नेता जिद्दी होते चले गए। अब यह ‘जिद’ टकराव का सबसे ज्वलंत बिंदु बन गई है और यहीं से यह धरना सिर्फ ‘धरना’ न रहकर एक ‘राजनीतिक आंदोलन’ बन गया है जैसे कि ‘शाहीनबाग’ आखिर में एक संगठित योजनाबद्ध राजनीतिक आंदोलन बन गया था।
हमारा मीडिया इस आंदोलन के बदलते रुख को नहीं देख पाता। वह उसे शुरू वाले धरने की तरह मानकर उसकी व्याख्या करता है, जबकि हर आंदोलन धीरे-धीरे या तो अधिक सघन होता जाता है या बिखर जाता है। ध्यान रहे, हर आंदोलनकारी आंदोलन से सीखता है। वह या तो थकता है या उग्र होकर, दुस्साहस करने लगता है और अपने अंत को प्राप्त होता है। इसीलिए कोई भी ‘जन आंदोलन’ शुरू होने से पहले ही यह तय करके आता है कि ‘एक हद’ से आगे वह नहीं जाएगा और ‘इतना’ मिल गया तो वापस हो जाएगा। हर ‘जन आंदोलन’ अपनी सीमा जानता होता है और उसे वह ‘क्रॉस’ नहीं करता, लेकिन यह आंदोलन जिस तरह के तेवर दिखा रहा है और जिस तरह से मीडिया में अपने अहंकार को अपने मुद्दे से बड़ा बनाकर दिखा रहा है और सरकार की बात ‘न मानने’ को अपनी ताकत मान रहा है, उससे लगता है कि अब यह ‘मुद्दा केंद्रित जन आंदोलन’ कम और एक ‘राजनीतिक मुहिम’ अधिक है क्योंकि कुछ किसान नेता यह तक कहने लगे हैं कि हम इसे ‘दो हजार चौबीस’ तक चलाएंगे। जाहिर है ऐसा कहने वाला नेता आंदोलन को एक लंबी राजनीति का हिस्सा बनाकर देखता है।
यह आंदोलन नहीं अहंकार है, जिसे मीडिया ने बनाया है, जबकि सच यही है कि मीडिया में दिखती हर चीज अपने आकार से बड़ी नजर आती है यही मीडिया का ‘छल’ होता है। आप यथार्थ में जितने होते हैं मीडिया उससे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है। यही मीडिया की छलना है, जो इसमें फंसा वो काम से गया! इसलिए अपनी आत्मछवि पर आंदोलन को मुग्ध नहीं होना चाहिए। जिस दिन सरकार ने और मीडिया ने ठान लिया कि अब आपको निपटाना है तो आप निपटते नजर आएंगे। इसलिए मीडिया के छल में न आएं जो आया वो मारा गया जैसे कि ‘शाहीनबाग’ आंदोलन मारा गया। जन आंदोलनों का इतिहास बताता है कि शुरू करने से पहले ही आंदोलनकारी नेता समझौते के रास्ते खोले रखता है, लेकिन इस आंदोलन ने वह रास्ता अपने हठ से बंद कर दिया है।
इतिहास बताता है कि हर आंदोलन के तीन चरण होते हैं : पहले वह अपने मुद्दों के लिए ‘दबाव’ डालता है, फिर ‘बारगेन’ करता है और फिर कंप्रोमाइज करके लौट जाता है। जो ऐसा नहीं करता वह या तो अपनी ‘सीमाएं’ नहीं जानता होता या फिर वह ‘षड्यंत्र’ में बदल जाता है या बिखर जाता है और इस तरह सत्ता को और मजबूत बनाता हुआ निपट जाता है। भाजपा के पास संसद में अपना बहुमत है और विपक्ष के पास न कोई भाजपा का वैकल्पिक रचनात्मक ‘नेरेटिव’ है, न नेतृत्व है न संघ भाजपा के कार्यकर्ताओं जैसी ‘अक्षौहिणी सेना’ है। उसने अपना वोट बैंक समर्थकों का आधार और वर्गाधर बनाया और बढ़ाया है, जिसे हिलाना फिलहाल मुश्किल है। ऐसे में एनजीओ या नेताओं के चलाए चलने की जगह आंदोलनकारियों को जो अधिकतम मिल रहा है उसे लेकर ससम्मान घर लौट जाना चाहिए। ध्यान रहे किसानों ने किसी देश में कभी क्रांति नहीं की है। हां प्रतिकांति अवश्य की है, जो इसमें ‘क्रांति’ देख रहे हैं वे मार्क्स को एक बार फिर से पढ़ लें तो बेहतर!
| Tweet |