तीन कृषि कानून : संशोधन हों या हों वापस?

Last Updated 07 Jan 2021 12:09:20 AM IST

वर्ष 2020 में जल्दबाजी में पारित तीन कृषि कानूनों का जितना विरोध देश में हुआ है, वैसा बहुत कम देखा गया है।


तीन कृषि कानून : संशोधन हों या हों वापस?

इन्हें ‘काले कानून’ बताते हुए किसानों ने इनके विरुद्ध व्यापक आंदोलन छेड़ रखा है। इनमें से एक कानून कांट्रैक्ट खेती के लिए अधिक बड़ी भूमिका को आगे बढ़ाता है किंतु विश्व स्तर पर कांट्रैक्ट खेती का अनुभव प्राय: छोटे और मध्यम किसानों के लिए प्रतिकूल रहा है। प्राय: कांट्रैक्ट करने वाली कंपनी अपने महंगे उत्पादों, तकनीकों को किसानों पर लादती रहती हैं जिससे उनका खर्च बढ़ जाता है, स्वतंत्रता कम हो जाती है। खरीद के समय फसल का उचित वर्गीकरण न कर, गुणवत्ता कम आंक कर प्राय: किसानों को कम मूल्य दिया जाता है। कांट्रैक्ट कृषि कानून की इस आधार पर भी आलोचना हुई है कि इसके कुछ प्रावधान बहुत स्पष्ट नहीं हैं, कंपनियों के हित में हैं और इन्हें सिविल कोर्ट की सामान्य परिधि से बाहर रखा गया है।
अन्य दो कानूनों ने एक ओर तो निर्धारित एपीएमसी/कृषि मंडी क्षेत्र से बाहर कर-मुक्त, अनियंत्रित निजी खरीद-बिक्री की व्यवस्था तैयार की है, दूसरी ओर आवश्यक उत्पादों, सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यों सहित विभिन्न कृषि उपज के भंडारण पर लगे नियंत्रणों और सीमाओं को हटा कर इनमें अधिक मुनाफाखोरी के द्वार खोल दिए हैं। इससे किसानों के लिए बनी मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य आधारित सीमित सुरक्षा व्यवस्था से दूर हटने का संकेत मिलता है जिसकी तीखी आलोचना किसान आंदोलन ने की है। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और एपीएमसी/मंडी बने रहेंगे। बेशक, ये भी बने रहें, पर इनके महत्त्व और भूमिका को कम करने और निजी क्षेत्र का नियंत्रण बढ़ाने का संकेत तो इन कानूनों में मिलता ही है, और उसके बाहर टैक्सरहित, अनियंत्रित बिक्री की जगह बढ़ाई जा रही है, कांट्रैक्ट फार्मिग से उत्पादन में भी उसकी भूमिका बढ़ाई जा रही है। निजी क्षेत्र का नियंत्रण बढ़ने और सुरक्षित व्यवस्था घटने से किसानों को आज नहीं तो कल हानि सहनी पड़ेगी। यह किसान संगठनों के विरोध का बड़ा कारण है। नये बदलावों को सिविल कोर्ट से बाहर रखने के कारण भी संदेह बढ़ रहे हैं।

इसके अतिरिक्त नये कानूनों का भूख, कुपोषण को कम करने और खाद्य सुरक्षा स्थापित करने के बेहद जरूरी उद्देश्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। निर्धनता और अनेक लोगों की कम क्रय शक्ति के माहौल में, बाजार-व्यवस्था स्वत: सबसे जरूरी खाद्यों के उत्पादन और उपलबि की गारंटी नहीं देती है, और इस कारण समर्थन मूल्य-सरकारी खरीद-सार्वजनिक वितरण प्रणाली-पोषण स्कीमों का ढांचा खड़ा करना आवश्यक हो जाता है। यदि सरकारें सुरक्षित खाद्य और कृषि व्यवस्था से हट कर निजी कंपनियों द्वारा नियंत्रित खाद्य एवं कृषि व्यवस्था की ओर जाती हैं तो मुनाफखोरी और सट्टे की प्रवृत्तियां बढ़ती हैं और खाद्य सुरक्षा कम होती है। यदि कांट्रैक्ट खेती बढ़ जाएगी तो कृषि उत्पादन देश की खाद्य आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं होगा अपितु अपने वैश्विक व्यवसाय की आपूर्ति के लिए बड़ी कंपनियां जिन खाद्यों की आपूर्ति चाहेंगी उनको ही देश के खेतों में बढ़ाया जाएगा। इस तरह भूख और कुपोषण दूर करने के लिए खेती नहीं होगी अपितु विश्व बाजार में कंपनियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए होगी।
जिस दिशा में नये कानून ले जाते हैं, उस राह पर टिकाऊ  खेती और पर्यावरण रक्षा के उद्देश्यों की भी क्षति होगी। इस समय भी इस दृष्टि से हमारी कृषि की स्थिति चिंताजनक है, पर ये कानून इस स्थिति को सुधारने के स्थान पर और बिगाड़ने की दिशा में ले जाते हैं। फसलों का चुनाव और कृषि तकनीक का चुनाव किसी स्थान की मिट्टी, पानी, जैव-विविधता, पर्यावरण आदि के आधार पर इनके संरक्षण को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए पर कांट्रैक्ट खेती में फसलों का चुनाव विश्व बाजार में मुनाफा अर्जित करने के आधार पर होता है। किसी स्थान के पर्यावरण की दीर्घकालीन रक्षा से कंपनी का लगाव प्राय: नहीं होता। वह एक स्थान की मिट्टी, पानी, अन्य संसाधनों का अधिक दोहन कर, यहां की बहुत क्षति हो जाने पर अपनी फसल प्राप्ति के लिए दूसरे स्थान पर चली जाती है। वह लाभ-हानि के आकलन में नकदी को ही देखती है, पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को  प्राय: महत्त्व नहीं देती। नये कृषि कानूनों के माध्यम से राज्य अधिकारों और विकेंद्रीकरण (पंचायती राज) पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है। कृषि में केंद्र सरकार का अत्यधिक नियंत्रण उचित नहीं है क्योंकि निर्णय स्थानीय स्थितियों के अनुकूल होना जरूरी है। तिस पर राष्ट्रीय नीति पर कॉरपोरेट हित हावी हो जाएं तो यह अत्यधिक नियंत्रण और भी हानिकारक सिद्ध हो सकता है जैसा कि इन कानूनों में देखा जा रहा है। राज्य सरकारों और पंचायती राज संस्थाओं से इन कानूनों के विषय में पर्याप्त विमर्श नहीं किया गया, जो संघीय लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण का उल्लंघन है। एपीएमसी/मंडी व्यवस्था पिछड़ने से राज्यों की आय कम होगी, ग्रामीण विकास कार्य प्रतिकूल प्रभावित होंगे, यह शिकायत अलग है। इन तीन कानूनों को तेजी से आगे लाने में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का कई स्तरों पर उल्लंघन हुआ। किसानों और उनके संगठनों से विमर्श बहुत कम हुआ, उनका विरोध स्पष्ट होने पर भी इसकी ओर आरंभिक स्थिति में ध्यान नहीं दिया गया। कानून अध्यादेश के रूप में बहुत जल्दबाजी में लाए गए और संसदीय समिति को सौंपे बिना ही लोक सभा में जल्दबाजी में कानून पास हुआ, जबकि राज्य सभा में तो लोकतांत्रिक पद्धति और भावना का उल्लंघन और भी अधिक चर्चा का विषय बना।
इन तीन कृषि कानूनों का व्यापक विरोध होने पर सवाल उठा कि इन्हें वापस लिया जाए या इनमें मात्र कुछ संशोधन करने से काम चल जाएगा। अभी तक आंदोलनकारी किसान संगठनों ने सरकार से अपनी वार्ता में और अन्यत्र बयानों में कई बार दोहराया है कि संशोधन से काम नहीं चलेगा, इन कानूनों को वापस ही लेना चाहिए। किसानों की मांग को व्यापक समर्थन मिल रहा है। दस विख्यात अर्थशास्त्रियों ने हाल ही में कृषि मंत्री को पत्र लिखा है (17 दिसम्बर) कि कुछ अंशों को इन कानूनों से हटा देने मात्र से किसानों की चिंता का समाधान नहीं होगा और इन्हें वापस ही लेना चाहिए। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की राय निश्चय ही सही दिशा में है, और सरकार को इसे स्वीकार करना चाहिए।

भारत डोगरा


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