पर्यावरण : इन प्रयासों से ही होगी रक्षा
विशाखापटट्नम से कुछ दूरी पर पारावादा के इंडस्ट्रियल एरिया में सेनर लाइफ साइंस के रासायनिक कारखाने में जून, 2020 को फैक्ट्री में बेंजिमिडाजोल गैस के रिसाव से मौके पर ही केमिस्ट और शिफ्ट इंचार्ज की मौत हुई और चार कामगार घायल हुए।
पर्यावरण : इन प्रयासों से ही होगी रक्षा |
30जून, 2020 को इस खबर के स्थानीय अखबार में छपने के बाद इस विषय को नेशनल ग्रीन ट्राइबुनल की प्रिसिंपल बेंच में उठाया गया।
इस मामले की सुनवाई 17 दिसम्बर, 2020 को और निर्णय आदेश 22 दिसम्बर 2020 को अपलोड हुआ। इस आदेश की खास बात यह थी कि दो मृतकों के परिवारों को पचास-पचास लाख का मुआवजा दिया गया और घायल हुए चार कामगारों को पांच-पांच लाख दिए गए। इसके अतिरिक्त इस बात का भी ध्यान रखा गया कि गैस के रिसाव से किसी वनस्पति को नुकसान तो नहीं हुआ। पेड़ पौधों को तो नुकसान नहीं हुआ, पर इससे यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि भविष्य में यदि जान माल के साथ वातावरण में उगे पौधों और पर्यावरण को क्षति पहुंचेगी तो उसकी भरपाई संबंधित कारखाने के मालिकों को करनी पड़ेगी। यह एक सराहनीय फैसला है। आदेश को निपटाने में संबंधित जिले के जिलाधिकारी को जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके अतिरिक्त फैसले में एक और बात सामने आई कि संबंधित राज्य को भी मुआवजा देना होगा, क्योंकि सुरक्षा के संबंध में उसकी भी जिम्मेदारी बनती है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रमुख कानून हैं-
पहला है: ‘द एअर (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल आफ पॉल्यूशन) एक्ट 1981, दूसरा: द वाटर (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल आफ पॉल्यूशन) एक्ट1986, इन एक्ट में लगभग 15 नियम या कानून हैं।
इनमें से प्रिवेंशन एंड कंट्रोल आफ पॉल्यूशन एक्ट 1981 सबसे महत्त्वपूर्ण है। हर राज्य में पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड है। उन पर वायु प्रदूषण को नियंत्रण करने की जिम्मेदारी है। बोर्ड कोर्ट भी जा सकता है। अभी तक देखा गया है कि प्रदूषण के मामले लंबे समय तक लटके रहते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 में प्रदूषण से संबंधित 82 फीसद मामले साल के अखिरी तक चलते रहे। इसी तरह 2014 में प्रदूषण के 48 मामलों में से तीन मामलों में ही दोष साबित हो सका। ऐसे ही 2015 में 50 मामलों में से सिर्फ 3 को ही दोषी साबित किया जा सका। 2016 में 25 मामले आए, पर किसी को दोषी करार नहीं दिया जा सका और 2017 में 36 मामलों में से मात्र दो को दोषी घोषित कर सके। प्रदूषण बढ़ने का स्तर 100 माइक्रोग्राफ क्यूबिक मीटर (एमजीसीएम) होता है, जबकि पीएम ढाई का 60 एमजीसीएम होता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 2016 से 2018 तक औसत पीएम 10 और ढाई का विश्लेषण किया। यह तीनों वर्ष सामान्य नहीं था और 2019 में सिर्फ दो दिन ही प्रदूषण मैप ग्रीन हुआ। पिछले वर्ष लॉकडाउन में 28 मार्च को मेरठ का पीएम ढाई सिर्फ 12.91 था। यह पूरे देश के प्रदूषित शहरों में सबसे कम था। इन सब विश्लेषणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारे कानून प्रभावी ढंग से लागू नहीं किए जा सके। देश में जगह-जगह पर्यावरण को सुरक्षित रखने में तरह-तरह की शिकायतें आती हैं, पर उन शिकायतों का निपटारा नहीं हो पा रहा है, यह ढील हमारे एक्जूक्यूशन की विफलताओं का संकेत देती है। भ्रष्टाचार इसमें चरम पर है, नहीं तो क्या कारण है कि शिकायतों को प्रभावी ढंग से नहीं निपटाया जा रहा है। एक ऐसा ही उदाहरण है- उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड का कार्य चल रहा है। उस रोड को बनाने का मकसद एकदम दुरुस्त है। इसके पीछे यही मंशा थी कि हर मौसम में पहाड़ों पर यातायात में कोई रुकावट न रहे बरसात में सड़कों पर लैंडस्लाइड न हो, पर्यटन पूरे वर्ष चलता रहे, पर इस रोड को बनाने से पूर्व बहुत सारी बातों का ध्यान नहीं रखा गया। इस पूरी योजना में वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया गया।
सड़कें बनाने से पूर्व संरक्षण के उपाय भी साथ-साथ करने चाहिए थे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इसकी जिम्मेदारी उन योजनाकारों की है, जो इस पक्ष को नहीं समझ सके। इसलिए इसकी भरपाई उन संस्थाओं को करनी चाहिए जो इसमें पूरी तरह से जुड़े हैं, सरकार भी इस तरह के पर्यावरण नुकसान के लिए अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। इसलिए कहीं भी कारखानों से लेकर बिल्डिंग निर्माण में पर्यावरण के नुकसान को आंकते हुए संबंधित संस्थाओं और व्यक्तियों पर केवल आर्थिक दंड नहीं, बल्कि उस वातावरण को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें पेड़ लगाने जैसे काम भी सौंपने होंगे। यह कार्य न्यायालयों के अतिरिक्त संबंधित सरकारों को भी देखने चाहिए।
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