किसान आंदोलन : सरकार के तेवर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब कई राज्यों के किसानों के साथ बातचीत में जो कुछ बोल रहे थे, उसका सीधा संदेश यही था कि कृषि कानूनों पर सरकार पीछे नहीं हटेगी।
किसान आंदोलन : सरकार के तेवर |
उनके साथ मंत्री भी कहीं न कहीं किसानों के बीच कानूनों को सही ठहरा रहे थे। आंदोलनरत लोगों के लिए यह स्पष्ट संकेत था। कम लोगों का ध्यान गया है कि आंदोलनरत वास्तविक किसानों एवं किसान संगठनों के प्रति नरम रवैया एवं बातचीत की नीति अख्तियार करते हुए भी भाजपा ने इसके समानांतर कृषि कानूनों पर समर्थन जुटाने के लिए जनता के बीच जाने का देशव्यापी अभियान चलाया है।
भाजपा के प्रवक्ताओं ने दिल्ली की सीमाओं पर धरना आरंभ होने के साथ ही आंदोलन के पीछे-आगे खड़े उन चेहरों पर हमला करना शुरू कर दिया था, जो उनके वैचारिक और राजनीतिक विरोधी हैं। प्रधानमंत्री का कहना, कि कुछ लोग किसानों में गलतफहमी पैदा कर उनको भड़का रहे हैं, स्पष्ट करता है कि सरकार इसे केवल किसानों का आंदोलन नहीं मानती, भाजपा विरोधी शक्तियों, राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक भाजपा विरोधी शक्तियों का अभियान मानकर उसके अनुसार निपटने की दिशा में आगे बढ़ चुकी है। ध्यान रखिए, भाजपा ने देश भर में कृषि कानूनों को लेकर जनसभाएं एवं पत्रकार वार्ताओं की घोषणा कर दी है। सूचना है कि ऐसे करीब 700 कार्यक्रम देशभर में भाजपा आयोजित कर रही है। तो आंदोलन के समानांतर सरकार एवं भाजपा का जनता के बीच जाने, हर मंच से अपना पक्ष रखने, आंदोलन में शामिल या बाहर से समर्थन करने वाले संगठनों-व्यक्तियों के खिलाफ आक्रामक कार्यक्रमों की विविध तस्वीरें और शब्दावलियां देखने-सुनने को मिलेंगी। प्रधानमंत्री के तेवर के बाद किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि इसे ज्यादा तीव्र और तीक्ष्ण किया जाएगा। प्रश्न स्वाभाविक हैं कि आखिर, मोदी सरकार और भाजपा इसे कहां तक ले जाएंगे एवं आंदोलन से कैसे निपटेंगे?
सरकार बार-बार कह रही है कि तीन कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कह रहे हैं कि किसानों की जो भी शंकाएं हैं, सरकार उनको दूर करने, किसानों को समझाने तथा सफाई देने के लिए हर समय तैयार है। सरकार एवं भाजपा की रणनीति और लक्ष्य स्पष्ट हैं। एक, किसानों और आम जनता के अंदर भाव पैदा करना कि आंदोलन किसानों का नहीं है, इसके पीछे वो सारी विरोधी शक्तियां खड़ी हैं, जिनका उद्देश्य मोदी और उनकी सरकार को बदनाम और अस्थिर करना है। दो, यद्यपि इसमें किसान संगठन हैं, लेकिन उनमें निष्पक्ष राजनीतिक विचारों से परे कम ही हैं। तीन, इनमें किसान भी हैं, लेकिन गलतफहमी के शिकार। अपना राजनीतिक हित साधने के लिए भाजपा विरोधी संगठनों, दलों, एक्टिविस्टों ने कृषि कानून के विरोध में इनको भड़काया है, और इनके अंदर कई तरह का डर पैदा किया है। मसलन, तुम्हारी जमीनें पूंजीपतियों के हाथों चली जाएंगी, सरकारी मंडियां बंद हो जाएंगी, एमएसपी बंद हो जाएगा, एमएसपी खत्म हो जाएगा आदि आदि। इस रणनीति का चौथा अंग है उन किसान संगठनों और नेताओं को विश्वास में लेना जिनका सीधा कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं इनमें आंदोलन में सम्मिलित संगठन और नेता भी हैं। कृषि कानूनों को किसानों की वास्तविक आजादी का कदम साबित करना तो है ही।
इसमें दो राय नहीं कि कोई भी कानून दोषरहित नहीं होता। कानूनों की अनेक खामियां क्रियान्वयन के साथ धीरे-धीरे सामने आती हैं। सरकार का रवैया होना चाहिए कि कुछ दोष सामने आएं तो इन्हें दूर करने के लिए कानून में संशोधन करे। इस कानून के साथ भी ऐसा है। ईमानदारी से विचार करें तो मोदी सरकार का रवैया पहले दिन से कानून को लेकर लचीला रहा है। आंदोलनकारियों के साथ बातचीत करने से लेकर आश्वासन तक देश के सामने हैं। निष्पक्षता से विचार करने पर स्वीकार करना होगा कि सरकार ने 9 दिसम्बर को आंदोलनकारियों को जो प्रस्ताव दिए उनके आधार पर आंदोलन समाप्त करने की घोषणा की जा सकती थी। अगर इसके पीछे मोदी विरोधी, भाजपा विरोधी और सारी शक्तियां खड़ी नहीं होतीं तो किसानों और सरकार के बीच सहमति हो गई होती। मोदी सरकार और भाजपा के रणनीतिकारों का पहले दिन से मानना रहा है कि जो लोग आंदोलन के साथ या पीछे हैं, वे कभी भी किसी समझौते को सफल नहीं होने देंगे। बावजूद व्यवहारिक रास्ता और लोकतांत्रिक आचरण यही था और है कि बातचीत के दरवाजे खुले रखे जाएं, स्वीकार करने योग्य मांग मान ली जाएं, जरूरतानुसार संशोधन करने और स्पष्टीकरण देने को तैयार रहें ताकि विरोधियों के पास सरकार को कठघरे में खड़ा करने का विसनीय आधार न रहे। सरकार ने अपने व्यवहार से पूरे देश को संदेश दिया है कि वह तो वास्तविक किसानों की वाजिब मांगों को स्वीकार करने को तैयार है, लेकिन जो दूसरे तत्व आंदोलन को गिरफ्त में ले चुके हैं, वे समझौता नहीं होने दे रहे।
प्रधानमंत्री अपने व्यवहार से स्पष्ट कर चुके हैं कि आंदोलन के पीछे खड़ी विरोधी शक्तियों के विरुद्ध मोर्चाबंदी आक्रमण जारी रखेंगे। मोदी सरकार एवं भाजपा ने सोच समझकर आंदोलन में लगी शक्तियों के विरुद्ध स्वभाव के अनुरूप वैचारिक एवं राजनीतिक युद्ध छेड़ दिया है। अभी तक मोदी और अमित शाह ने जो चरित्र दिखाया है, उसके आलोक में बेहिचक कहा जा सकता है कि कृषि कानूनों के पक्ष में तथा विरोधियों के विरुद्ध माहौल बनाने का अभियान प्रचंड रूप लेगा। विरोधियों के सामने मोदी और शाह ने ऐसी चुनौती पेश की है, जिसकी उम्मीद उन्हें नहीं थी। लेकिन मोदी और शाह के नेतृत्व वाली भाजपा से जमीनी स्तर पर मुकाबला करना संभव नहीं। वह भी इस कानून के बारे में गलत प्रचार करके। कई राज्यों में सघन राजनीतिक टकराव की स्थिति पैदा होगी।
प. बंगाल, केरल, महाराष्ट्र और पंजाब इनमें प्रमुख हैं। कहने का तात्पर्य यह कि कृषि कानूनों के विरोध में शुरू आंदोलन को भाजपा ने अपनी रणनीति से व्यापक राजनीतिक संघर्ष में परिणत करने की रणनीति अपनाई है। मोदी और शाह की भाजपा नये चरित्र और तेवर वाली भाजपा है, जिसे रक्षात्मक बनाने या दबाव में लाने के लिए नये राजनीतिक तौरतरीकों की आवश्यकता है। यह पहली सरकार है जो विरोधों और विरोधी आंदोलनों का सड़क पर उतर कर, जनता के बीच जाकर मुकाबला करती है। मोदी और भाजपा विरोधियों ने अभी तक अपने विचार-आचार में पुराने राजनीतिक तौर-तरीकों से अलग कुछ भी नया नहीं दिखाया है। इसलिए मान कर कर चलिए कि विरोधियों को सफलता नहीं मिलने वाली। इसमें आंदोलन का हश्र क्या होगा? आकलन आप आसानी से कर सकते हैं।
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