कोरोनाकाल : क्रूरता और आधी आबादी
कोई भी समाज तब तक अपने आपको सभ्य नहीं कह सकता है जब तक कि क्रूरता मौजूद है। भारत अपवाद नहीं है।
कोरोनाकाल : क्रूरता और आधी आबादी |
यह कहना सत्य के अधिक करीब रहना होगा कि भारत उन देशों में सबसे आगे है, जहां आधी आबादी के साथ अधिक क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। यह इसके बावजूद कि हम इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश कर चुके हैं और हमारे अपने देश भारत को आजाद हुए सात दशक से अधिक समय बीत चुका है। यह इसके बावजूद कि वर्ष 1990 के दशक में वैीकरण के बाद भारतीय समाज में तमाम तरह के बदलाव सामने आए हैं। मध्यम वर्ग और अधिक सुविधा संपन्न हुआ है, उच्च आय वर्ग भी पूर्व की अपेक्षा अधिक सशक्त हुआ है। एक हदतक निम्न आय वर्ग भी पहले की तुलना में अधिक जागरूक हो गया है।
सबसे पहले तो यह समझने की आवश्यकता है कि क्रूरता के अलग-अलग स्तर होते हैं। मतलब यह कि आधी आबादी यानी महिलाओं के खिलाफ क्रूरता एक धब्बा है, जिसके लिए किसी भी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। वजह यह कि महिलाएं कमजोर होती हैं और इसकी वजह होती उनका गर्भधारण करना। हालांकि गर्भधारण करना प्रकृति आधारित है, लेकिन यही महिलाओं को कमजोर कर देता है। महिलाओं के खिलाफ क्रूरता की भयावह स्थिति को समझने के लिए कुछेक आंकड़ों पर गौर करना जरूरी है। सबसे पहले तो अद्यतन आंकड़े पर नजर डालते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग ने जारी किया है। इसके मुताबिक, बीते वर्ष 2020 में आयोग को 23 हजार 722 शिकायतें मिलीं। यह आंकड़ा बीते छह वर्षो में सबसे अधिक है। इनमें अधिकांश मामले घरेलू हिंसा से संबंधित हैं। इनमें करीब साढ़े सात हजार शिकायतें सम्मान के साथ जीने के अधिकार से जुड़ी हैं। वहीं शेष मारपीट के।
यह इस बात का प्रमाण भी है कि कोरोना काल में महिलाएं दोहरे खौफ में रहीं। एक खौफ कोरोना का तो दूसरा खौफ अपनों के द्वारा बरती जानेवाली क्रूरता। बड़ा सवाल यह है कि भारतीय समाज इन आंकड़ों को किस संवेदनशीलता के साथ ग्रहण करेगा? हैरानी की बात यह है कि ये मामले तब समाने आए, जब देश में कोरोना की वजह से लोग अपने घरों में रहे। जब लॉकडाउन को हुए दो महीने हुए थे तब एक रपट आई थी कि कंडोम व पिल्स की बिक्री ने नया रिकार्ड बनाया है। मतलब साफ है कि घरों में रहने वालों के बीच प्यार बढ़ा, लेकिन अब राष्ट्रीय आयोग की ताजा रपट बिल्कुल दूसरी तस्वीर प्रस्तुत करता है। जाहिर तौर पर यह तस्वीर बेहद बदरंग है। इस आंकड़े को एक नजीर मानते हैं और यह समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर गौर करते हैं, जिनसे यह पुख्ता हो सकेगा कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां आधी आबादी के लिए रहम की कोई गुंजाइश नहीं है। मसलन, राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो द्वारा प्रकाशित क्राइम इन इंडिया-2019 रिपोर्ट के हिसाब से वर्ष 2019 पूरे देश में 1 लाख 25 हजार 298 महिलाओं ने अपने परिजनों (अधिसंख्य पति) के खिलाफ मामला दर्ज कराया। अधिकांश मामले यह कि उनके परिजनों ने उनके साथ क्रूरता बरती।
इस संदर्भ में सबसे अधिक 18 हजार 432 मामले राजस्थान में दर्ज हुए। वहीं दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश रहा जहां 18 हजार 304 मामले दर्ज किए गए। देश की राजधानी और केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली में 3792 महिलाओं ने परिजनों की क्रूरता के संबंध में मामले दर्ज कराए। इन आंकड़ों पर गहन विचार की आवश्यकता है। आवश्यकता इसलिए कि ये मामले वे मामले हैं, जिनमें अधिकांश पीड़ित या तो मध्यम वर्ग की रहीं या फिर उच्च वर्ग की। वजह यह कि इन वर्गों की महिलाओं के पास ही यह समझने की क्षमता है कि परिजनों की क्रूरता होती क्या है? उनके किस तरह के व्यवहार को क्रूर कहा जा सकता है। निम्न आय वर्ग की महिलाएं तो पतियों व अन्य परिजनों की क्रूरता को अपनी नियति मान आजीवन घुट-घुटकर जीती रहती हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार क्यों होती हैं? क्यों वे विरोध तक नहीं करतीं? ये सवाल इसलिए कि संविधान में इसके लिए कानून बनाए गए हैं। घरेलू हिंसा एक दंडनीय अपराध है, लेकिन इसके बावजूद घरेलू हिंसा रुकी नहीं है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि करीब 45 फीसद बलात्कार के मामलों में आरोपित परिजन होते हैं। यह आंकड़ा भी कुछ इशारा करता है।
कारणों की बात करें तो यह कहा जा सकता है कि कानून को लागू कराने वाला तंत्र घरेलू हिंसा को लेकर संवेदनशील नहीं है। पति अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है। पत्नी मना करे तो उसके साथ मारपीट की घटनाएं सामान्य बात हैं। यदि कोई महिला थाना जाकर अपने पति के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराना चाहे तो कोई मामला दर्ज नहीं करता। दूसरी तरफ खाने में नमक कम रह जाय अथवा नमक तेज हो जाए तो कई अपनी पत्नी के साथ मारपीट करते हैं। इस पूरे विमर्श में उन महिलाओं का उल्लेख नहीं है जो घरों में दाई का काम करती हैं। चूंकि घरों में काम करने वाली महिलाएं असंगठित क्षेत्र की मजदूर वर्ग में शामिल हैं तो सरकारों के पास इसका कोई आंकड़ा ही नहीं है कि उनकी संख्या कितनी है। फिर भी यदि सरकार के हवाले से कुछ बात की जाए तो भयावह परिस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। एनसीआरबी द्वारा वर्ष 2019 में जारी आंकड़ा यह बताता है कि घरेलू नौकरानियों/दाइयों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार के कुल 553 मामले दर्ज कराए गए हैं। अब सवाल इस कम संख्या पर ही करते हैं। हमें यह समझना होगा कि दाई अथवा नौकरानियों के रूप में काम करने वाली महिलाएं अधिकांश दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्गों की होती हैं। ये आर्थिक रूप से इतनी विपन्न होती हैं कि इनकी दाई का काम इनकी आजीविका का मुख्य साधन होता है। इनमें बाल मजदूरों की संख्या भी अधिक है।
ये अधिकांश सुदूर इलाकों से लाई गई बच्चियां होती हैं, जो गुलाम के समान होती हैं। ऐसे में यदि उनके साथ किसी तरह की क्रूरता होती है तो उनके पास मामला दर्ज करवाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। सनद रहे कि देश में कई सारे कानून हैं, जो महिलाओं के साथ क्रूरता का निषेध करते हैं, फिर भी यदि स्थितियों में सकारात्मक बदलाव नहीं आया है तो हमें समाज के सभी हिस्सेदारों के साथ विचार करना चाहिए। आवश्यक है कि क्रूरता को समाप्त करने के लिए न केवल कानून और सरकारी तंत्र को संवेदनशील होना होगा बल्कि समाज को भी खुले दिमाग से यह स्वीकार करना होगा कि महिलाएं भी इस देश की उतनी ही नागरिक हैं जितने कि पुरुष। महिलाओं के वोटों का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि पुरुषों का।
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