कोरोना टीका : सियासत नहीं, सराहना कीजिए
अभी हाल ही में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यह कह कर कि ‘वे कोरोना की वैक्सीन नहीं लगाएंगे क्योंकि उन्हें भाजपा के टीके पर भरोसा नहीं’, लोगों को सकते में डाल दिया।
कोरोना टीका : सियासत नहीं, सराहना कीजिए |
उनका यह बयान तब आया जब वैक्सीन आपूर्ति के अंतिम चरण में है। मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि सपा के एक अन्य विधायक ने एक सनसनीखेज बयान में इसे नपुंसक बनाने वाला वैक्सीन बता कर लोगों को इससे परहेज की सलाह दे डाली। ऐसी बयानबाजी ने आमजन के उत्साह को ठंडा करने का ही काम किया है। मामले ने तब और तूल पकड़ा जब कांग्रेस के शशि थरूर जैसे प्रबुद्धजन द्वारा सार्वजनिक मंच से वैक्सीन को लेकर अनअपेक्षित टिप्पणी की गई।
एक लंबे, तकलीफदेह अरसे के बाद वैक्सीन की उपलब्धि का जहां गर्मजोशी से स्वागत किया जाना चाहिए था, उसकी प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न खड़े करना न केवल चौंकाता है बल्कि सकते में भी डालता है। दुनिया भर के लोगों ने इस महामारी में अपने प्रियजनों को खोया है, जिसकी भरपाई नामुमकिन है। ऐसे में संकीर्ण राजनीति से प्रेरित बेतुके बयानों ने लोगों की आस्था की को कमजोर करने का काम किया है। प्रतीक्षारत वैक्सीन की उम्मीद में हजारों बेसब्र आंखों ने सैकड़ों रतजगे काटे हैं। ऐसे में वैक्सीन की विसनीयता पर सवाल खड़े करना न केवल ओछी मानसिकता का परिचायक है अपितु संकीर्णता का भी स्पष्ट प्रकटीकरण है। आधारहीन बयानों ने आमजन को उलझाने का ही काम किया है। हद तो तब हो जाती है जब सुअर की चर्बी मिली होने की बात कहकर कभी इसे गैरवाजिब करार दिया जाता है तो कभी इसकी प्रभावकारिता पर प्रश्नचिह्न लगा कर इसे धार्मिंक कट्टरता का रंग दिया जाता है।
लोकहित के ऐसे संवेदनशील मसले पर राजनीतिक रोटियां सेंकना गंभीर सवाल पैदा करता है। भारत जैसे विशाल देश में जहां पहले से ही टीके की आपूर्ति सुनिश्श्चिति करने को लेकर पेशोपश की स्थिति है। वहां कपोल कल्पित बयानों से लोक निहितार्थ के मामले अवरूद्ध होते हैं। टीके के भंडारण, केंद्रों तक आपूर्ति, चिकित्सकों व सहायक स्टाफ नसरे की समयानुकूल तैनाती, प्राथमिकता आधार पर शॉट लगाने आदि जैसे कई मसले हैं, जिसने पहले से ही प्रशासन को सकते में डाल दिया है। तमाम मुश्किलें झेल रहे देश का अब नये प्रकार के वाक्युद्ध से घिर जाना कोई शुभ संकेतक नहीं है। यह कोई पहला मामला नहीं है जब टीके की विश्वसनीयता को लेकर माखौल उड़ाया गया हो। दुनिया भर में ऐसी अनेकों घटनाएं हैं, जहां संकीर्ण मानसिकता वाले समूहों ने अप्रत्याशित रूप से किसी बड़ी सफलता को सीधे तौर पर स्वीकारने में हिचकिचाहट दिखाई है। शशि थरूर, अखिलेश यादव और जयराम रमेश द्वारा कोरोना वायरस के टीके की मंजूरी के लिए वैज्ञानिकों द्वारा पालन किए गए प्रोटोकॉल को डिस्क्रेडिट करना हास्यास्पद है। राष्ट्रीय महत्व के ऐसे मुद्दे का राजनीतिकरण अपमानजनक है। विदित हो कि ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने सीरम इंस्टीट्यूट के बाद भारत बायोटेक की स्वदेशी वैक्सीन ‘कोवैक्सीन’ को आपातकालीन इस्तेमाल की मंजूरी दी है। दशकों पहले कुछ इसी तरह की धार्मिंक कट्टरता और संकीर्णता की आड़ में पोलियो के टीके के वितरण को भी बाधित करने की असफल कोशिश की गई थी। कोरोना के टीके में मौजूद तत्व और कॉम्पोनेंट की जानकारी दुनिया भर के मेडिकल वेबसाइट प्लेटफार्म पर आसानी से उपलब्ध है, जिससे इसकी प्रमाणिकता की तस्दीक की जा सकती है। ऐसे में विरोधी मानसिकता वाले लोगों द्वारा भोली भाली जनता को गुमराह करने और इसे अनुपयुक्त ठहराने की कोशिश वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम का माखौल उड़ाने के सदृश है। रात-दिन एक कर टीका तैयार करने वाले इन प्रयोगशाला वारियर्स की योग्यता पर प्रश्न उठाना न्यायोचित नहीं। जब समूचा देश उत्साह में नजरें गड़ाए है, तब टीके की उपादेयता पर सवाल उठाना खलता है।
आलोचना की बजाय इसे सराहा जाना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे भारत के समग्र प्रयासों की सरहाना की है। संकीर्ण और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर यह वक्त संकट में साथ एक खड़े होने का है। अनावश्यक टीका-टिप्पणी के बजाय हमारे चिकित्सकों और वैज्ञानिकों की पीठ थपथपानी चाहिए। सरकार को भी इसे अपनी उपलब्धि बताकर अतिरेक से बचना चाहिए। ऐसे मामलों में श्रेय लेने या स्व-उपलब्धि बताने की बजाय राष्ट्रहित की विवेचना के केंद्र रखना ही उचित है। स्वश्रेष्ठता की अतिरंजना में न फंस कर लोकोपकार की भावना ही वर्तमान संकट का समाधान है।
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