खेती-किसानी : असली मुद्दे पर ध्यान नहीं

Last Updated 04 Jan 2021 02:22:33 AM IST

एक समय था जब भारत को अपन पेट भरने के लिए अनाज की भीख मांगने विदेश जाना पड़ता था।


खेती-किसानी : असली मुद्दे पर ध्यान नहीं

हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरी है? क्या वजह है कि आज भी देश में इतनी बड़ी तादाद में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है?
‘गेहूं का कटोरा’ माने जाने वाले पंजाब तक में जमीन की उर्वरकता घटी है और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूजल स्तर 700 फुट नीचे तक चला गया है। दरअसल, यह सब हुआ उस कृषि क्रांति के कारण, जिसके सूत्रधार थे अमेरिका के कृषि विशेषज्ञ नर्मन बोरलोह, जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग कर एवं ट्रैक्टर से खेत जोत कर कृषि उत्पादन को दुगना-चौगुना कर दिखाया। इधर भारत में कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को राजी कर लिया और बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का आयात शुरू हो गया। इसके साथ ही कुछ देसी कंपनियों ने ट्रैक्टर और अन्य कृषि उपकरण बनाने शुरू कर दिए। शास्त्री जी के बाद जो सरकारें आई उन्होंने इसे आमदनी का अच्छा स्रोत मान कर इन कंपनियों के साथ सांठगांठ कर भारत के किसानों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं की ओर ले जाने का काम किया। नतीजतन सदियों से गाय, गोबर और गो मूत्र का उपयोग कर नंदी से हल चलाने वाले किसान ने महंगी खाद और उपकरणों के लिए ऋण लेना शुरू किया।

इससे एक तरफ तो कृषि महंगी हो गई क्योंकि उसमें भारी पूंजी की जरूरत पड़ने लगी। दूसरा, किसान बैंकों के कर्ज के जाल फंसते गए। तीसरा, सदियों से कृषि की रीढ़ बने बैल अब कृषि पर भार बन गए, जिससे उन्हें बूचड़खानों की तरफ खदेड़ा जाने लगा। इस सब प्रक्रिया में ग्रामीण बेरोजगारी भी तेजी से बढ़ी। क्योंकि इससे गांव की आत्मनिर्भरता का ढांचा ध्वस्त हो गया। अब हर गांव-शहर के बाजार पर निर्भर होता गया, जिससे गांव की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। क्योंकि उपज के बदले जो आमदनी गांव में आती थी उससे कहीं ज्यादा खर्चा महंगे उपकरणों, रासायनिक खाद, कीटनाक, डीजल आदि पर होने लगा। इस सबके दुष्परिणामस्वरूप सीमांत किसान अपने घर और जमीन से हाथ धो बैठा। मजबूरन उसे शहर की ओर पलायन करना पड़ा। इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड्यंत्र सफल हो गया। चिंता की बात यह है कि आज की भारत सरकार को भी भारत की कृषि की कमर तोड़ने के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के बारे में सब कुछ पता है, मगर इन कंपनियों ने शायद सबके मुंह पर दशकों से चांदी का जूता मार रखा है। इसीलिए ये लोग दिखाने को यूरिया में नीम मिला कर देने की बात करते हैं। पर उर्वरक मंत्रालय केमिकल मंत्रालय के साथ जुड़ा हुआ है, जबकि उर्वरक कृषि मंत्रालय का विषय है।
एक ओर कृषि मंत्रालय, ‘नेशनल सेंटर फॉर आर्गेनिक फार्मिंग’ के केंद्र हर जगह स्थापित कर रहा है। दूसरी तरफ यही केंद्र जोर-शोर से ‘वेस्ट डिकम्पोजर’ का प्रचार भी कर रहा है। वहीं सारे एग्रीकल्चर कॉलेजों के पाठ्य़क्रम में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग का विधि सिखाई जाती है न कि प्राकृतिक कृषि की। आप किसी भी एग्रीकल्चर कलेज का यूट्यूब वीडियो देख लें, वे आपको रासायनिक खादों एवं कीटनाकों के ही प्रयोग की विधि बताएंगे। क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और तथाकथित उन्नत किस्म के बीज का एक अंतरराष्ट्रीय माफिया काम कर रहा है, जो कृषि प्रधान भारत को दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस माफिया के साथ प्रशासन के लोगों की भी सांठ-गांठ है। अगर इस माफिया पर भारत सरकार का नियंत्रण होता तो देश में दस लाख किसान आत्महत्या नहीं करते। आंकड़ों की मानें तो अकेले महाराष्ट्र में साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अब इस माफियाओं के गुट में एक और माफिया शामिल हो गया है जो शराब बनाने वाले कम्पनियों और राजनीतिज्ञों की सांठ-गांठ से सक्रिय है। एक ओर गरीब लोग मुट्ठी भर अनाज के लिए तरसते हैं, तो वहीं गेहूं 20 रुपये किलो के दर से खरीद कर ‘भारतीय खाद्य निगम’ के गोदामों या खुले मैदानों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर उसी गेंहू को 2.00 रुपये किलो के भाव से शराब बनाने वाली इन कम्पनियों को बेच दिया जाता है।
इस पूरी दानवी व्यवस्था का विकल्प महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में बता चुके हैं। कैसे गांव की लक्ष्मी गांव में ही ठहरे और गांव के लोग स्वस्थ, सुखी और निरोग बनें। इसके लिए जरूरत है भारतीय गोवंश आधारित कृषि की व्यापक स्थापना की। हर गांव या कुछ गांव के समूह के बीच भारतीय गोवंश के संरक्षण व प्रजनन की व्यवस्था होनी चाहिए। गांव के राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज चारागाहों की भूमि को पट्टों और अवैध कब्जों से मुक्त करवा कर वहां गोवंश के लिए चारे का उत्पादन करना चाहिए। इस उपाय से गांव के भूमिहीन लोगों को रोजगार भी मिलेगा। देश में सात लाख गांव है और अगर दस-दस समर्थक भी एक एक गांव के लिए काम करें तो केवल 70 लाख समर्थकों की मदद से हर गांव में गौ विज्ञान केंद्र की स्थापना हो सकती है। क्या हम सब पहल कर एक-एक गांव को इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकते?
सड़कों व जंगलों में छोड़ दिए गए गोवंश को बूचड़खाने की तरफ न भेज कर क्या उनके गोबर और गौमूत्र से जैविक खेती करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते? आशा है सभी किसान हितैषी संगठन इस सुझाव पर ध्यान देंगे। जैसा मैंने इस कॉलम में पहले भी लिखा है कि गोवंश की रक्षा गौशालाएं बनाकर नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो जमीन हड़पने और भ्रष्टाचार के केंद्र बन जाते हैं। गौवंश की रक्षा तभी होगी जब हर किसान के घर कम से कम एक या दो गाय जरूर पाली जाएं। इससे न सिर्फ भारतीय कृषि उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि उस कृक का परिवार भी स्वस्थ और सम्पन्न बनेगा।

विनीत नारायण


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