मीडिया : डरा हुआ पत्रकार और किसान
यों तो मीडिया हमेशा ही एक ओर ‘सत्ता’ दूसरी ओर ‘जनता’ के दबाव में काम करता है।
मीडिया : डरा हुआ पत्रकार और किसान |
फिर भी ऐसे दबाव मीडिया के रोजमर्रा के कामकाज में प्राय: दिखाई नहीं देते, लेकिन जब से किसानों का धरना शुरू हुआ है, तब से मीडिया पर एक ओर ‘सत्ता’ दूसरी ओर ‘जनता’ के दबाव साफ दिखाई देने लगे हैं। इसका उदाहरण है वह ‘पोस्टर’ जिसे दिल्ली बॉर्डर पर धरने पर बैठे किसानों ने लगाया हुआ है, जिसमें लिखा था:
‘एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में एक मरा हुआ नागरिक पैदा करता है’।
किसानों द्वारा पत्रकारों को दी जाती इस महत्त्वपूर्ण ‘सीख’ की भी एक कहानी है। कहते हैं कि एक खबर चैनल जब सत्ता के नजरिए से धरने की रिपोर्टिग करने लगा तो किसानों को गुस्सा आ गया। वो चैनल किसानों के बीच पहुंचा तो उन्होंने उस चैनल को आरोपित करना शुरू कर दिया कि वो उनके आंदोलन को सरकारी नजरिए से दिखाकर बदनाम कर रहा है..। किसी भी जन-आंदोलन की रिपोर्टिग यों भी रिस्की होती है। सामने खड़ी भीड़ का दबाव कहता है कि उसे ‘जस का तस’ दिखाओ और लाइव कैमरा उसको ‘जस का तस’ दिखाने को विवश होता है। असली समस्या कवरेज के साथ चलती ‘कमेंटरी’ से पैदा होती है, जो दृश्यों की व्याख्या करती चलती है जो दृश्य के हेतुओं के नाना पक्षों को बताती है। यहीं एक समस्या खड़ी हो जाती है। एकपक्षीय रिपोर्ट करने वाला चैनल व रिपोर्टर पहचान लिया जाता है क्योंकि इन दिनों के आंदोलनकारी अपने साथ लाए ‘टीवी सेट’, ‘लेपटॉप’ या ‘स्मार्टफोन’ चैनलों के कवरेज देख सकते हैं। कवर करने वाले को पहचान कर उससे शिकायत कर सकते हैं कि उनके आंदोलन को क्यों बदनाम कर रहा है?
आंदोलनकारियों की ऐसी ही शिकायत ‘शाहीन बाग’ के धरने की कवरेज के दौरान भी दिखी थी जब कई ‘पक्षपाती’ चैनलों को धरने वालों ने अपने पास तक नहीं आने दिया था। जाहिर है कि आज के आंदोलनकर्ता नये हैं। वे न केवल ‘मीडिया-सजग’ हैं, बल्कि अपने आंदोलन की ‘छवि’ के प्रति भी सजग हैं। मीडिया की ताकत को समझते हैं, और उसी के जरिए अपनी ताकत जुटाते हैं। मीडिया उनको ‘खबर बनाने वाला’ लगता है, और मानते हैं कि उनकी ही बात चले तो चले, वरना मीडिया बिका हुआ है, सत्ता का दलाल है। उधर अपने को हमेशा सही समझने वाली राजनीतिक सत्ताएं ऐसे आंदोलनों को प्राय: संदेह की नजर से देखती हैं क्योंकि ऐसे आंदोलन उसको कठघरे में खड़ा करके जबावदेह बनाने लगते हैं। ऐसे में मीडिया का काम अधिकाधिक रिस्की होता जाता है।
एक ओर सत्ता, दूसरी ओर जनता के बीच वह पिसने लगता है। ‘सर्वाइवल’ के लिए वह ‘सत्ता के सामने सत्ता की सी’ कहने लगता है और ‘जनता के आगे जनता की सी’। और इस तरह जिस ‘आजादी’, ‘निष्पक्षता’ और ‘सत्यप्रियता’ का दावा करता रहता है, वही दावे एक्सपोज होने लगते हैं। जिन दिनों अधिकांश मीडिया नित्य ‘नवध भक्ति’ में डूबा रहता हो, उन दिनों ‘सत्ता’ को तंग करने वाली उसकी एक लाइन भी किसे पसंद आ सकती है? तब, मीडिया क्या करे? परेशान जनता दरवाजे पर खड़ी है और चीख-पुकार कर रही है, तो उसकी चीख-पुकार कैसे न दिखाए, उसकी समस्याएं कैसे न बताए क्योंकि यही तो उसका काम है और यही तो उसे ‘लोकप्रिय’ बनाता है। मीडिया इसकी भी खबर न देगा तो उसे ‘विज्ञापन’ कैसे मिलेंगे और कमाई कैसे होगी और एंकर, रिपोर्टर आदि अपनी मोटी पगार कहां से पाएंगे?
मीडिया पर सत्ता का दबाव कितना है? अंदाजा तीस दिसम्बर को किसानों के साथ सरकार की ‘वार्ता’ के बाद की उस रिपोर्टिग में देखा जा सकता है, जिसमें रिपोर्टर विज्ञान भवन से निकलते किसान नेताओं से पूछते थे कि ‘सुनते हैं बातचीत अच्छे माहौल में हुई’ और किसान कहने लगते थे कि ‘हां, बातचीत अच्छे माहौल में हुई, दो पांइट पर सहमति हुई’। जल्द ही एक किसान ने ‘अच्छे माहौल की’ हवा यह कहकर निकाल दी कि दो मुद्दों पर सहमति बनी है, लेकिन हम आपस में बात करेंगे तब बताएंगे यानी फाइनल फैसला चार जनवरी की बातचीत में होगा। साफ है कि मीडिया दो मुद्दों की ‘सहमति’ को बेचने में लगा था, जबकि किसानों के कई नेता इस सहमति को अधिक भाव नहीं दे रहे थे क्योंकि उनके लिए असली मुद्दा ‘तीनों कानूनों की वापसी’ है! इसीलिए जब एक नामी एंकर-रिपोर्टर किसानों के बीच गया तो उसे मालूम हुआ कि किसान, पत्रकारों को पोस्टर पर लिखकर ‘निडर’ होने की सीख दे रहे हैं: ‘एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में एक मरा हुआ नागरिक पैदा करता है’!
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