बिहार : भ्रामक राजनीतिक स्थिति

Last Updated 31 Dec 2020 05:56:01 AM IST

बिहार में भाजपा-जदयू-लोजपा का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है।


बिहार : भ्रामक राजनीतिक स्थिति

तीसरे नंबर का घटक लोजपा तो इस गठबंधन में है भी या नहीं, यह यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता। भाजपा की ओर से देखने पर वह है, लेकिन जदयू की तरफ से देखने पर नहीं है। विधानसभा के विगत चुनाव में लोजपा ने जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार उतार कर उनकी खटिया खड़ी कर दी थी। 115 सीटों  पर चुनाव लड़ कर जदयू को केवल 43 सीटें आ सकीं। भाजपा के खिलाफ लोजपा ने उम्मीदवार नहीं दिए थे। उसे 74 सीटें मिलीं। संभव है हार के कारण कुछ  और हों। लेकिन जदयू अपनी हार के लिए  लोजपा को ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। जदयू के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ने भी चिराग  पासवान को अपनी पार्टी की हार का कारण बताया है। चिराग की पार्टी प्रसन्न है कि जदयू ने उसकी ताकत का आकलन तो किया। भाजपा से जुड़े एक मंत्री ने कुछ समय पूर्व चिराग से अपनी पार्टी के पुख्ते संबंधों की बात की है। चिराग स्वयं को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान कह रहे हैं।

भाजपा की तो चांदी ही चांदी है। लोजपा के संस्थापक और चिराग के पिता रामविलास पासवान की मृत्यु से रिक्त राज्य सभा सीट कायदे से लोजपा को जानी चाहिए थी। जदयू का भय दिखा कर भाजपा ने इसे झटक लिया और अपने कद्दावर नेता सुशील मोदी को राज्य सभा में ले आए। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदरबांट वाली कहानी कोई भी याद कर सकता है। जदयू के नीतीश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन लगता है कि उन्होंने अपनी साख खो दी है। सरकार अपने रूटीन कार्य जरूर कर रही है, लेकिन उससे अधिक कुछ भी नहीं। मंत्रिमंडल का विस्तार लंबित है। कैबिनेट के कुछ फैसले ऐसे लिए गए मानो चुनाव का वक्त हो। इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में आसन्न चुनाव की चर्चा भी होने लगी। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी अपनी पार्टी की बैठक में कभी भी चुनाव के संकेत दिए हैं। नीतीश की सार्वजानिक तौर से ऐसी खिन्न मन:स्थिति कभी नहीं रही थी। वह बहुत सम्भल कर बोलने वाले राजनेता माने जाते हैं। पिछले एक महीने में वह दो बार बोल चुके हैं कि उन्हें जबरन मुख्यमंत्री बनाया गया। इस पद पर फिर से आने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी। इस पर कोई भी विश्वास कर सकता है। नीतीश को जो भी जानता है, वह यही कहेगा कि ऐसी गलीज स्थिति में उनका मुख्यमंत्री पद स्वीकार करना उनके स्वभाव और चरित्र के प्रतिकूल है। बिहार में पकड़ौआ विवाह की खबरें आती रही हैं। पकड़ौआ मुख्यमंत्री भी बनाए जाने की स्थिति भी आएगी,यह शायद ही किसी को अंदाज रहा होगा। नीतीश की पीड़ा को कोई भी समझ सकता है। जब कोई ताकत किसी को जबरन मुख्यमंत्री बना सकती  है, तो उससे जबरन फैसले भी करवा सकती है। यह भयावह राजनीतिक स्थिति ही कही जाएगी।
नीतीश ने जो वक्तव्य दिया है, शायद उसकी गंभीरता को न वह समझ रहे हैं, न उनकी पार्टी के लोग। और न ही मौजूदा विपक्ष। ऐसे विवश मुख्यमंत्री से बिहार आखिर क्या अपेक्षा कर सकता है! वास्तविक स्थिति तो केवल नीतीश ही बतला सकते हैं, लेकिन अनुमान तो किया ही जा सकता है कि अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से वह गुजर रहे हैं। लगता है कि नीतीश की स्थिति उनकी पार्टी के भीतर भी अत्यंत कमजोर हो चुकी है। वह मुख्यमंत्री के साथ अपनी पार्टी के राष्ट्रीय सदर भी थे। उनका कार्यकाल अभी दो साल बाकी था और कहा जा सकता है कि इस पद पर आने के लिए वह उत्सुक थे क्योंकि अपने आदरणीय साथी और नेता शरद यादव को हटा कर वह उत्साहपूर्वक इस पद पर आए थे। इसी हफ्ते जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होती है और नीतीश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अचानक  इस्तीफा देते हैं। आनन-फानन में वही प्रस्ताव करते हैं कि उनकी पार्टी के  राज्य सभा सदस्य रामचंद्र प्रसाद सिन्हा उर्फ आरसीपी सिन्हा (जो एक समय उनके पूर्व (आप्त) सचिव भी थे) पार्टी के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष होंगे।
बिहार के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि यह सब भाजपा के निर्देशानुसार हो रहा है। यह बहुत विसनीय तो नहीं लगता लेकिन इसमें थोड़ी भी सच्चाई है तो इसका अर्थ है कि जदयू को भाजपा लगभग लील चुकी है। विश्वास करने का कुछ कारण तो दिखता है। वह है कोई दो साल पहले का दिया नीतीश का ही एक वक्तव्य, जिसमें उन्होंने कहा था कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर उन्होंने प्रशांत किशोर को अपने दल का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था यानी जदयू भाजपा के इशारे पर अपने इतने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक फैसले लेती रही है। क्या इस बार का अध्यक्ष पद भी अमित शाह के इशारे पर ही  बनाया गया है? और इसमें भी मुख्यमंत्री बनाने की तरह नीतीश से जबरदस्ती की गई है?
जिस तरह नये अध्यक्ष का आसन-ग्रहण हुआ उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। कोई भी याद कर सकता है 2004 की घटना, जब  सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था और उनके प्रशंसकों ने कोहराम मचा  कर रख  दिया था। मुश्किल से उन्हें मनाया गया था। नीतीश ने जब अपना इस्तीफा रखा तब कोई कोहराम नहीं हुआ, यह किसी को भी अविसनीय लग रहा है। हाल में मुख्यमंत्री आवास में जिस तरह अटलबिहारी वाजपेयी और अरुण जेटली के जन्मदिन आयोजित हुए, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। जदयू ने कभी लोहिया या अपनी पार्टी के संस्थापक जॉर्ज फर्नाडिस का जन्मदिन इस तरह आयोजित किया हो। इसकी जानकारी किसी को नहीं है। इन सब से अंतत: क्या अर्थ निकलता  है। कुछ तो बात अवश्य है। तो क्या एक समाजवादी कही जाने वाली पार्टी का इस तरह अवसान हो जाएगा? मुझे इसकी उम्मीद कम दिखती है। इन सबके बावजूद नीतीश से यही उम्मीद बनती है कि वे भाजपा में समाहित नहीं होंगे। लेकिन इतना जरूर कहा जाएगा कि वह छटपटाहट अथवा घुटन महसूस कर रहे हैं। ऐसी घुटन बर्दाश्त करना उनकी फितरत में नहीं है। इसलिए उम्मीद यही बनती है कि बंगाल के चुनाव तक लस्तम-पस्तम ऐसे ही चलेगा। लेकिन उसके बाद बिहार में भयावह राजकंप होगा। इसका सब से बुरा प्रभाव एनडीए पर ही पड़ेगा। भाजपा की राजनीति शायद यह है कि इलाकाई पार्टयिों को एक -एक कर या तो अपने में समाहित कर ले या फिर उन्हें विनष्ट कर दे। कौन समाहित होगा और कौन विनष्ट? अभी कहना या अनुमान लगाना मुश्किल है।

प्रेमकुमार मणि


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