मुद्दा : बहस खेती बनाम पूंजी की
इस समय किसान के खेत का आलू और सब्जियां आने लगी तो कितना सस्ता मिल रहा है सब कुछ।
मुद्दा : बहस खेती बनाम पूंजी की |
उससे पहले व्यापारी के गोदाम का था तो आलू ही 50/60 मिल रहा था, जिसे गरीब की सब्जी कहते हैं। यही हाल दूसरी चीजों का है। किसान पूरी मेहनत से पैदा करता है पर उसके पास भंडारण की क्षमता नहीं है और 80 प्रतिशत किसान छोटे या सीमांत किसान है जो सिर्फ उतना ही पैदा कर पाते हैं कि वो खा लें और बाकी बेच कर उसे तत्काल कर्ज चुकाना होता है, इलाज करवाना होता है जो वो रोके होता है फसल तक। जरूरी कपड़ा हो या खेती का सामान या फिर गाय भैंस सब उसी में से आगे पीछे करना होता है। बच्चों की किताब हो या बेटी को शादी सब करना होता है कुछ नकद और कुछ उधार जो उसे गांव या पास के व्यापारी से मिल पाता है खेत और फसल की गारंटी पर पैसे की सीमा के अनुसार। इन्हीं तत्कालिक जरूरतों के कारण उसे खाने लायक रोक कर अपनी फसल तत्काल बेचना होता है और इसी बात का फायदा उठाता है व्यापारी।
जिस समय आलू पैदा होता है किसान के खेत से 2 रुपये किलो तक चला जाता है और कभी-कभी बोरे की कीमत में। कभी तो ये हाल हो जाता है कि किसान वहीं बाहर आलू फेंक देता है कि जो ले जाना चाहे वो ले जाए। गन्ने के साथ भी हम अक्सर देखते हैं कि गन्ना खेत में ही जला देते हैं और टमाटर सड़क पर फेंकते दृश्य भी देखे हैं। पर कभी बिस्किट, कोक या फैक्टरी की चीजे फेंकते तो नहीं देखा न दवाई, केचप या चिप्स। और अगर कोई कारण फेंकने का आया तो मालिक खुद फैक्टरी मे आग लगवा कर उससे ज्यादा बीमा वसूल लेता है पर किसान के मामले में बीमा वाला 10 हजार करोड़ कमाता है और हजारों किसान आत्महत्या करते हैं क्योंकि उनका बीमा उनका वाजिब मुवावजा देता ही नहीं है। नेता बड़े-बड़े वादे किसानों से करते हैं पर विपक्ष में और सत्ता में आते ही पूंजीपतियों के पाले मे खड़े हो जाते हैं इसलिए किसान बदहाल है वर्ना एक समय तक तो पूरा भारत इसी खेती से ही जिंदा था और सोने की चिड़िया था। यहा तक की लॉकडाउन मे भी जब सब कुछ बंद था होटल, कारखाने, जहाज, कार और कपड़े भी आलमारी में थे तो जरूरत सिर्फ खाने का अन्न, सब्जी दूध सभी को और जो बीमार थे उनको दवाई की पड़ी और किसान ने कोई चीज कम नहीं होने दिया। इसके बावजूद कृषि को उपेक्षित रखा गया है। एक सवाल हमेशा से कचोटता है कि जो लोग हमारे सामने जमीन पर थोड़ा सा सामान बेच रहे थे या साइकिल पर बेच रहे थे या छोटा-मोटा लकड़ी का खोखा लगाकर बेच रहे थे वो देखते-देखते बड़ी पक्की दुकान के मालिक हो गए, बड़ी-बड़ी कोठियों के मालिक हो गए यहां तक कि फैक्टरी और होटल के मालिक हो गए। जब सवाल करो तो कहा जाता है कि उसने पैसा लगाया और मेहनत की पर किसान भी तो पैसा लगाये बैठा है और अधिकतर मामलों में इन व्यापारियों से ज्यादा क्योंकि किसान का खेत लाखों का है। उसमें वो खर्च भी करता है बीज, पानी-खाद पर और दिन, रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात में पसीना बहाता है। तो किस मामले में वह व्यापारी से पीछे है। ये सवाल सत्ता से भी है और समाज से भी। जहां तक फसल कहीं भी बेचने का सवाल है; वो नियम पहले से है पर 80 फीसद से ज्यादा किसान अपने ब्लॉक या पास की मंडी के बाहर कभी नहीं जाते क्योंकि उतना उत्पादन ही नहीं है। उनके निकट मंडी बना और हर हाल में उनकी उपज खरीद कर और स्वामीनाथन आयोग के अनुसार मूल्य देकर तथा उद्योग की तरह सुरक्षा और बीमा देकर ही उसका भला किया जा सकता है तथा उसे कृषि में और गाव में रोका जा सकता है।
भारत का मूल गांव, किसान और खेती है; उसे मजबूत करना ही होगा। गांव को शहरों की बराबरी पर विकसित करने की जरूरत है। क्या ये तय नहीं हो सकता कि जो शहर में एक स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और फैक्टरी बना रहे हैं; उन्हें उस जिले के गांव में भी बनाना ही होगा और उसके लिए लालफीताशाही खत्म कर, पुलिस का आतंक और शोषण खत्म कर उसे गांव में लोगों को सुरक्षा का एहसास कराने की मूल जिम्मेदारी देकर तैयार करना होगा, जिससे ये सब खोलने वाले तथा उसमें काम करने वाले शौक से गांवों में जाने को तैयार हो। कोई तो होगा जो बड़ा सोचेगा, महात्मा गांधी के संदेश समझेगा। भारत को जनता के पैसे से बड़ा आदमी बने लोगों का देश नहीं बल्कि खुशहाल गांव और खुशहाल लोग वाला भारत बनाएगा। पर पहले उन सवालों का जवाब ढूंढना होगा और सत्ता को जवाबदेह होना होगा जो ऊपर उठे हैं।
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