मीडिया : धरने का ‘हाइपर रीयल’
अगर हम मीडिया से पूछें कि कानूनों से कुल कितने किसान नाराज हैं तो वह नहीं बता सकता।
मीडिया : धरने का ‘हाइपर रीयल’ |
यही बात अगर सरकार पूछें तो वह नहीं बता सकती और यदि यही बात धरना देने वालों से पूछें तो वे भी नहीं बता सकते। मतलब साफ है कि मीडिया हो या सरकार या एनजीओ, जो इस आंदोलन को चला रहे हैं, उस ‘रीयलिटी’ को नहीं जानते, न जानने की परवाह करते हैं, जिसे वे सब मिलकर बना रहे हैं। इस ‘लापरवाही’ का कारण धरने की बनाई हुई ‘रीयलिटी’ में छिपा है, उसके ‘हाइपर रीयल’ होने में छिपा है। ‘हाइपर रीयल’ यानी ‘रीयल से भी अधिक रीयल’ यानी ऐसी ‘उत्तर आधुनिक संरचना’ है, जो सचमुच के ‘रीयल से भी अधिक रीयल’ नजर आए यानी असली यथार्थ से भी अधिक चटख चमकीला और मुखर यथार्थ।
इसे मीडिया बनाता है। वह इसको ‘हाइप’ करके बनाता-दिखाता है। सीन में ट्रैक्टर हैं, ट्रालियां हैं, मसाजर हैं, वॉशिंग मशीनें हैं, लंगर है, किचिन है, पिज्जा है, जलेबी है, पकोड़े हैं, लोक गायक हैं, सेवक हैं और अब एक ‘किसान मॉल’ भी है यानी किसानों के धरने में आराम के सारे संसाधन हैं ताकि धरने वालों को कष्ट न हो। यही इस धरने का ‘हाइपर रीयल’ तत्व है। ऐसा रीयल जो धरने के ‘रीयल से भी अधिक रीयल’ है जो ‘धरने’ को उसके ‘कष्ट’ से अलग कर देता है। यही हाल ‘रिले हंगर स्ट्राइक’ का है, जिसमें किश्तों में भूख हड़ताल है ताकि किसी को कष्ट न हो।
अपने सत्य के लिए कष्ट सहने वाले के प्रति हमदर्दी पैदा होती है, लेकिन यही चीज धरने के सीन से गायब है। प्रमाण वे बाइटें हैं जिनमें रिपोर्टर जब पूछते हैं कि आप इतनी ठंड में पड़े हैं..तो टके सा जवाब मिलता है : ‘हम किसान हैं ऐसी ठंड में भी हम खेतों में पानी देने जाते हैं यानी अपनी हमदर्दी अपने पास रख। हमें तेरी हमदर्दी की जरूरत नहीं’। हम जानते हैं कि हर धरने-प्रदर्शन में कष्ट होते हैं, लेकिन यह धरना ऐसा है जो अपने मूल कष्टों से दूर कर दिया गया है क्योंकि आराम के सारे साधन उपलब्ध हैं।
यही इसका ‘हाइपर रीयल’ है। रीयल यानी ‘कष्ट’ और ‘रीयल से भी अधिक रीयल’ यानी ‘निष्कंटक’ यानी कष्ट से दूर कर दिया गया यथार्थ। याद करें, लगभग ऐसे ही ‘हाइपर रीयल सीन’ हमें शाहीन बाग के तीन महीने के धरने में दिखे थे। ‘शाहीन बाग’ के ‘हाइपर रीयल’ को जितना वहां की जनता ने बनाया था उतना ही मीडिया ने बनाया था। वहां भी धरने के ‘यथार्थ’ को ‘यथार्थ से भी अधिक यथार्थ’ बना दिया गया था। उस धरने को भी धरने के ‘कष्ट’ से ‘अलग’ कर दिया गया था। ठंड से एक बच्चे की मौत के बाद भी कष्टों का बखान कम था और खानपान व बिरयानी की चरचा अधिक थी जिसमें ‘शाहीन बाग की शेरनियां’ समारोहित थीं।
ऐसा ही ‘हाइपर रीयल’ इन धरनों में दिखता है, और इसीलिए रूमानी दिमाग चाहे इसमें ‘क्रांति’ देखें या मोदी की सत्ता को उखाड़ फेंकने की संभावना देखें लेकिन है यह भी वैसा ही ‘हाइपर रीयल’ है, जो ‘रीयल से भी अधिक रीयल’ है, जो ‘यथार्थ से भी अधिक यथार्थ’ है, ‘सच से भी अधिक सच’ है क्योंकि वह अपने ‘मूल’ से, अपने ‘असली मानी’ यानी धरना प्रदर्शन में होने वाले ‘कष्ट’ से अलग कर दिया गया एक स्वतंत्र ‘शो’ यानी ‘तमाशा’ है, जिसमें किसान का दुख कम, उसके सुख के साधन अधिक बोलते हैं।
ऐसे ‘हाइपर रीयल शो’ से किसी को कोई खतरा नहीं हो सकता क्योंकि वह खुद एक ‘तमाशा’ होता है, इसीलिए किसानों के प्रति संभव हमदर्दी गायब है, इसीलिए वे लोग जो इससे बहुत कुछ की उम्मीद लगाए हैं, उनको उसी तरह की निराशा हाथ लगनी है, जिस तरह की निराशा ‘शाहीन बाग की शेरनियों’ के हाथ लगी थी। ‘टाइम’ पत्रिका में मोदी के बरक्स बिलकीस बानो का फोटो उसी ‘हाइपर रीयल’ का विस्तार था जो शाहीन बाग के धरने में बना था। इस धरने में भी कोई चेहरा होगा जो ‘टाइम’ या ऐसी ही किसी बड़ी जगह ‘हाइप’ किया जाएगा।
ऐसे हाइपर रीयल दृश्य कुछ देर सत्ता को तंग करते हैं, फिर उससे ‘संघर्ष’ का नाटक करते हैं, लेकिन अंत में बोर करते हुए एक दूसरे में बिला जाते हैं। जैसे दो वीडियो एक दूसरे में मिक्स कर दिए जाते हैं। धरने वालों द्वारा ‘जिओ’ का बायकाट कर, अन्य मोबाइल सेवाओं को लेने का अभियान ऐसा ही ‘हाइपर रीयल’ शो है, जो नहीं जानता कि ‘मोबाइल मोनोपोलीज’ बहुत अलग नहीं होती। कल को ‘जिओ’ सस्ता पेकेज दे देगा तो यही ‘बायकाट’ करने वाले ‘जिओ’ की ओर लपक लेंगे।
जाहिर है कि उत्तर आधुनिकतावादी हाइपर रीयल ‘शिकायती शो’ तो जबर्दस्त देता है, लेकिन बदलता कुछ नहीं।
| Tweet |