किसान समस्या : समाधान जरूरी है

Last Updated 21 Dec 2020 12:49:05 AM IST

इसमें दो राय नहीं है कि देश में किसानों की हालत लगातार खराब हुई है। गत 73 वर्षो में उनकी स्थिति सुधारने के लिए अगर कोई प्रयास किए गए हैं तो उसका फायदा नहीं हुआ है।




किसान समस्या : समाधान जरूरी है

किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के लिए 2004 में तब की सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था। ‘नेशनल कमीशन अन फार्मर्स’ को ‘स्वामीनाथन आयोग’ के नाम से भी जाना जाता है।
इस आयोग ने पांच रिपोर्ट दी हैं। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट चार अक्टूबर, 2006 को दी गई थी। इस रिपोर्ट की सिफारिशें आज तक लागू नहीं की जा सकी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि नये कृषि कानून किसानों के हक में हैं। इसलिए किसानों की मांग न होते हुए भी, सरकार ने अचानक बिना घोषित तैयारी के जल्दबाजी में तीन कृषि कानून पास कर दिए। संसद में इन पर चर्चा नहीं होना और इन्हें पास किए जाने का तरीका विवादास्पद रहा। पर सरकार इन कानूनों के आलोचकों को भ्रमित बता रही है, जबकि दूसरी ओर विपक्षी दल इसे नोटबंदी की तरह ही जल्दीबाजी में बनाया गया कानून कह कर सरकार से इस पर संसद में बहस की मांग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इस बहस से बचने के लिए ही सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र कोविड के बहाने रद्द किया है, जबकि बिहार, हैदराबाद चुनावों व सिंघु सीमा पर जमी किसानों की भारी भीड़ कोविड के भय को आईना दिखा रही है। किसानों, सरकार व विपक्ष के बीच ऐसे अविश्वास के माहौल में अगर बातचीत नहीं होगी तो समस्या का हल निकलने की संभावना नहीं दिखती है।

उधर कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों को खालिस्तानी और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है, जबकि आंदोलनकारी सरकार पर पूंजीपतियों के हित में काम करने का आरोप लगा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसानों के आंदोलन के हक को संवैधानिक बताते हुए सरकार को वार्ता जारी रखने का निर्देश दिया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर व रेल मंत्री पीयूष गोयल, यहां तक की गृह मंत्री अमित शाह तक किसानों से वार्ता कर चुके हैं पर अभी तक हल नहीं निकला है। अब तो किसान बात करने को भी तैयार नहीं हैं। तो बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। पर कोशिशें जारी हैं। यह दिलचस्प है कि उत्पादन कम होना खेती की समस्या की नहीं है। अगर ऐसा होता तो उसे उत्पादन बढ़ाकर ठीक किया जा सकता था।
हरित क्रांति के बाद देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है और इस मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। पर खेती करने वाले किसान आत्मनिर्भर नहीं हैं। जरूरत उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की है और इसके लिए उन्हें उत्पाद का वाजिब मूल्य मिलना जरूरी है। अभी तक यह न्यूनतम समर्थन मूल्य से सुनिश्चित किया जाता था। पर नये कानून में इसका प्रावधान नहीं है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह व्यवस्था बनी रहेगी। विरोध और विवाद का मुद्दा यही है और यह सरकार की साख तथा भरोसे से भी जुड़ा है।
वैसे, यह समझने वाली बात है कि किसान को जरूरत न्यूनतम समर्थन मूल्य की है न कि कहीं भी बेचने की आजादी। किसान खराब होने वाली अपनी फसल लेकर बाजार में घूमे भी तो खरीदने वाला उसे उचित कीमत नहीं देगा क्योंकि वह जानता है कि पैदावार कुछ दिन में खराब हो जाएगा और किसान की मजबूरी है कि वह उसे जो कीमत मिल रही है उसपर बेचे। कोई भी खरीदार इसका लाभ उठाएगा और यही किसान की समस्या है। न्यूनतम समर्थन मूल्य आसान उपाय है। दूसरा उपाय यह हो सकता था कि किसानों की पैदावार को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो और वह सही समय पर अपनी उपज सही मूल्य पर (सही बाजार में) बेच पाए। पर खुले ट्रक या ट्रैक्टर पर किसानों की ज्यादातर फसल कुछ दिन में बेकार हो जाती है।  इसलिए किसानों को करपोरेट की तरह एमआरपी यानी अधिकतम खुदरा मूल्य की सुविधा नहीं मिलती है बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा थी जो अब खत्म होती लग रही है। ऐसे में उनका परेशान होना वाजिब है।
समस्या इतनी ही नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य जब जरूरी है और उसे खत्म किया जा रहा है तो यह कौन बताए और कौन सुनेगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य भी लागत और आवश्यक मुनाफे के लिहाज से कम होता है और इसे बढ़ाने की जरूरत है पर अभी तो उसकी बात ही नहीं हो रही है। पूरी व्यवस्था ही उलट-पुलट हो गई लगती है।  यह दिलचस्प है कि एक तरफ सरकार किसानों को नकद आर्थिक सहायता दे रही है और दूसरी ओर उसे सरकार की नीति का विरोध करने वाले किसान संपन्न नजर आ रहे हैं। इसे खूब प्रचारित किया जा रहा है। आम जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार का विरोध करने वाले गरीब, परेशान या प्रभावित नहीं हैं और जो गरीब, परेशान या प्रभावित हैं वे नकद सहायता से खुश हैं।
अव्वल तो यह वास्तविकता नहीं हो सकती है पर हो भी तो स्थायी समाधान नहीं है। यह अनवरत नहीं चलता रह सकता है कि किसान सब्सिडी से काम चलाएं। कुछ उपाय तो किया ही जाना चाहिए। और अगर इतने बड़े आंदोलन से भी इस जरूरत को नहीं महसूस किया गया है तो यह चिंता की बात है। जैसा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि कृषि बिल के हर बिंदु पर सरकार और किसानों के बीच खुले मन से विमर्श होना चाहिए जिससे, अगर कोई भ्रम है तो वो दूर हो जाए और अगर कानून गलत बन गया है तो उसका संशोधन हो जाए। इसलिए दोनों पक्षों के बीच वार्ता होना बहुत जरूरी है।

विनीत नारायण


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