शराबबंदी : नये सिरे से बनानी होगी रणनीति
बिहार में लागू होने के चार साल बाद भी शराबबंदी कानून एक बार फिर से खासा चर्चा में है।
शराबबंदी : नये सिरे से बनानी होगी रणनीति |
हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब यह कानून चर्चा का विषय बना हुआ है, लेकिन इस बार कई कारणों से शराबबंदी पर मचे घमासान के चलते यह फिर से बिहार में बहस का केंद्र बना हुआ है। एक कारण यह है कि कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा सांसद निशिकांत दूबे ने जहां शराबबंदी को फेल बताया है, वहीं बिहार एनडीए के जीतन राम मांझी ने भी इस कानून में ढिलाई की वकालत कर दी है। वहीं, दूसरी ओर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस), 2019-20 के ताजा आंकड़ों ने बिहार में शराबबंदी की कामयाबी पर सवालिया निशान लगा दिया है।
रिपोर्ट के मुताबिक अगर महाराष्ट्र और बिहार की तुलना करें, तो शराबबंदी के बावजूद नशा सेवन में बिहार के लोगों का प्रतिशत महाराष्ट्र के बरक्स ज्यादा है। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 15.5 फीसद लोग शराब का सेवन करते हैं बिहार के ग्रामीण इलाकों में 14 फीसद जबकि शहरी इलाकों में 15.8 फीसद लोग शराब का सेवन करते हैं। यह सब कुछ तब है, जब कानून तोड़ने पर जुर्माना और सजा का प्रावधान है। इसके बावजूद शराब की बिक्री रु की नहीं है। हालांकि, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हजारों करोड़ रु पये के राजस्व पर शराबबंदी को सामाजिक सुधार के वास्ते तरजीह दी गई थी और आज भी इसका मूल मकसद यही है।
कानून तोड़ने के आंकड़े इस पर जरूर सवाल खड़े करते हैं, मगर यह भी सच है कि समाज में इसका सकारात्मक असर पड़ा है। थानों में दर्ज सड़क दुर्घटना के मामले घटे हैं और पारिवारिक अशांति के मामलों में गिरावट आई है, लेकिन कानून उल्लंघन के बढ़ते मामलों के चलते इस कानून के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। ऐसा इसलिए भी है कि एनएफएचएस के आंकड़ों का हवाला देते हुए अब शराब निर्माताओं ने भी शराबबंदी कानून वापस लेने की मांग कर नीतीश कुमार की टेंशन बढ़ा दी है। कानून के उल्लंघन के चलते अदालतों में लंबित मामला एक अलग समस्या है। दरअसल, दो लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं। इनमें ज्यादातर गरीब तबके के लोग हैं। जीतन राम मांझी ने ऐसे ही लोगों की तरफ इशारा किया है, जिनके पास जमानत की राशि तक नहीं है। हालिया दिनों में पटना हाईकोर्ट ने भी इस पर चिंता जताई थी। ये लंबित मामले न केवल न्यायपालिका पर अतिरिक्त दबाव डाल रहे हैं, बल्कि आरोपितों के परिवार के लिए भी मुश्किलें खड़ीं कर रहे हैं। लिहाजा, नीतीश सरकार को फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना पर ध्यान देना होगा। अगर शराबबंदी की सफलता की बात करें, तो यह राज्यों की प्रशासनिक क्षमता पर निर्भर करती है और शराबबंदी के संदर्भ में अक्सर ही राज्य की प्रशासनिक क्षमता कमजोर साबित हुई है। आंध्र प्रदेश और हरियाणा में क्रमश: 1995 और 1996 में शराबबंदी लागू हुई थी, लेकिन इसी कारण फैसले वापस ले लिए गए। वजह है कि शराब माफियाओं की बहुलता राज्य की प्रशासनिक क्षमता को पंगु बना देती है। इससे इतर, अब तक के अनुभव बार-बार साबित करते रहे हैं कि नशाखोरी जैसी आदतें कड़े कानून बनाकर और सख्त सजाएं देकर दूर नहीं की जा सकतीं, क्योंकि ये समाज की इच्छा और अनिच्छा से जुड़ा मसला है। लिहाजा, लोगों को जागरूक बनाने और उन्हें नैतिकता का बोध कराने से ही यह लत दूर होगी। इसके लिए सरकार को सिविल सोसायटी से मदद का आह्वान करना चाहिए। समाज के प्रभावशाली लोगों को आगे आकर शराब के खिलाफ एक जनमत तैयार करना होगा।
वक्त आ गया है कि बार-बार नाकाम साबित हुई शराबबंदी की नीति को लागू करते हुए उसका नुकसान उठाते रहने के बजाय इस नीति को पलटने का फैसला किया जाए। इतने सारे उपाय के बाद यदि प्रशासनिक दक्षता को सुदृढ़ नहीं किया गया, तो शराबबंदी के बारे में सोचना भी बेमानी होगी, क्योंकि राज्य का मजबूत प्रशासनिक तंत्र ही शराबबंदी को सुनिश्चित कर सकता है। समझने की जरूरत है कि लुके-छिपे शराब की बिक्री से सिस्टम में भ्रष्टाचार जैसी अन्य कई बुराइयां जोर पकड़ने लगी हैं। फिर 90 फीसद अवैध शराब की खपत गरीब और पिछड़े तबकों के लोग कर रहे हैं, जिसकी कीमत 400 फीसद तक बढ़ गई है। जबकि शराबबंदी का मकसद गरीबों को इस गंदगी से बाहर निकालना था। बहरहाल, बिहार सरकार द्वारा शराबबंदी के क्रियान्वयन की लचरता को दूर करने के लिए उचित और सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत है ताकि शराबबंदी के उद्देश्य धूमिल न होने पाए और आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर भविष्य मिल सके।
| Tweet |