मीडिया : तीसरा पक्ष और मीडिया
पिछले बीस-बाईस दिनों की मीडिया की पहली खबर दिल्ली के ‘हाइवेज’ पर किसानों के धरने की खबर रही है। मीडिया ने कनाडा, इंग्लैंड और अमेरिका तक में प्रदर्शनों के फुटेज तक दिखाए हैं, जिनमें कुछ ‘खालिस्तानी’ भी दिखे हैं, लेकिन इस बार के टीवी कवरेज में एक बड़ी कमी भी नजर आती है और इस कारण हम इस कवरेज को अधूरा कहेंगे।
मीडिया : तीसरा पक्ष और मीडिया |
पिछले बीस-बाईस दिन से खबर चैनल अपनी खबरों में सिर्फ दो पक्षों को ही दिखा रहे हैं: एक है सत्ता का पक्ष और दूसरा है किसानों का पक्ष।
एक है सरकार द्वारा पारित कृषि कानूनों से किसानों को होने वाले भावी फायदों का पक्ष और दूसरा है इन कानूनों को किसानों के अस्तित्व के लिए खतरनाक मानने वाले किसान नेताओं का पक्ष! मीडिया दोनों के ‘विलोम’ (बाइनरी) फंसा है : एक है सरकार का पक्ष जिसे मीडिया पूरी वफादारी से दिखाता है, और दूसरी ओर है किसानों का पक्ष जिसे पूरी हमदर्दी से दिखाता है। कवरेज में जो पक्ष एकदम अनुपस्थित है, वह है ‘तीसरा पक्ष’ यानी ‘दिल्ली की जनता का पक्ष’ यानी वह जनता जो धरने से सीधे दिनोंदिन प्रभावित हो रही है। एक चौथा पक्ष उस जनता का भी है, जो जयपुर, आगरा, अलीगढ़ जैसे दूसरे शहरों से दिल्ली आती-जाती रहती है, लेकिन हाइवे पर लंबा जाम लगने के कारण नहीं आ-जा पा रही! पांचवां पक्ष उस जनता का भी है जो छोटे किसानों की है, जिसने गोभी, आलू या फूल आदि बोए हैं और जाम के कारण उन्हें दिल्ली की मंडियों तक नहीं पहुंचा पा रही और उनको खेतों में ही सड़ने दे रही है। ऐसे एक किसान ने खेत में गोभियों पर ट्रैक्टर तक चला दिया जिसके सोशल मीडिया पर वायरल होने पर सरकार ने गोभी की खरीद की।
अफसोस की बात है कि मीडिया ने किसानों के मुद्दे को सिर्फ द्विपक्षीय मुददा मानकर ही दिखाया है जबकि इसके और भी आयाम हैं, जिनको दिखाए बिना मीडिया कवरेज को अधूरा ही माना जा सकता है। जैसे कि हाइवेज बंद हो जाने से लगभग घिराव में आई दिल्ली की जनता इस आंदोलन के बारे में क्या सोचती है, या जयपुर आगरा की जनता क्या सोचती है, या वह छोटा किसान क्या सोचता है, जिसकी उपज मंडी तक नहीं जा पा रही है। ऐसे ‘सहवर्ती नुकसान’ (कोलेटरल डेमेज) मीडिया की चिंता का विषय ही नहीं बनते। कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया का अब तक का कवरेज आधा-अधूरा कवरेज ही है। या तो सरकार केंद्रित है, या किसान केंद्रित जबकि धरने से सीधे प्रभावित होने वाली दिल्ली की जनता भी है जो किसानों की एक प्रकार की ‘कैद’ में है। धरने के कारण दिल्ली के सारे हाईवेज बीस-बाईस दिन से जाम हैं। वाहनों की आवाजाही बंद सी है। सब्जी व फलों की सप्लाई कमतर हो रही है। रोजमर्रा की चीजें महंगी हो रही हैं। दिल्ली की जनता भी बातचीत के टूटने से परेशान है। डरी हुई है कि ऐसे ही चलता रहा तो आगे क्या होगा? एक दिन चैनलों ने जरूर बताया था कि धरने की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को हर रोज 35000 करोड़ रुपयों का नुकसान हो रहा है।
ऐसे ही मीडिया ने धरने के कारण बंद कारखानों को कवर किया है। हाईवे से जुड़े इंडस्ट्रियल एरियाज में सप्लाई कट जाने से बंद होतीं फैक्टरियों की खबर भी दी है, लेकिन दिल्ली के आम नागरिक की बढ़ती परेशानियों की खबर न के बराबर दी है जबकि शाहीन बाग के कवरेज में ऐसा नहीं था। शाहीन बाग के कारण आसपड़ौस के लोगों को होने वाली तकलीफों को मीडिया ने पर्याप्त बताया था जिसका एक नैतिक दबाव बना था। दिल्ली वालों का एक ‘नागरिक पक्ष’ सामने आया था। इस बार दिल्ली वालों का यह ‘नागरिक पक्ष’ गायब है। वो कनाडा, अमेरिका की खबर दे सकता है लेकिन दिल्ली की जनता की प्रतिक्रिया को नहीं दिखाता! क्यों? शायद इसलिए कि मीडिया की नजर में किसान अभी भी प्रेमचंद की कहानियों या मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं वाला दयनीय और गरीब किसान है जबकि सचाई इसके विपरीत है।
धरने पर बैठे खाते-पीते किसानों को रिपोर्ट करने के दौरान मीडिया ने ही बताया कि ये किसान अपेक्षाकृत अमीर किसान हैं, जिनके पास ट्रैक्टर ट्रालियां हैं। उनमें लगे बिजली के ‘स्विच बोर्ड’ हैं। फ्लेट स्क्रीन वाले टीवी सेट हैं। हाथ में स्मार्टफोन है। कसरत करने के लिए जिम हैं। मनोरंजन के लिए डीजे-वीजे और सिंगर हैं। एक घंटे में दो हजार रोटी बनाने वाली मशीन है। पिज्जा है। मैगी है। कड़ाही में तले जाते पकोड़े और छनती जलेबियां हैं, मोटर पंपें, वाशिंग मशीनें, इलेक्ट्रिक मसाजर तक हैं। मीडिया को समझना चाहिए कि इस आंदोलन के दो ही पक्ष नहीं, बल्कि ‘तीसरा पक्ष’ भी है, जिसके बिना मीडिया कवरेज अधूरा है!
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