कोरोना वॉरियर्स : जिंदगी की जंग हारते

Last Updated 18 Dec 2020 12:28:47 AM IST

कोरोना संक्रमण से आम लोगों को बचाने वाले स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी, सफाईकर्मी या मीडियाकर्मी भी उसकी चपेट से खुद को नहीं बचा पा रहे हैं।


कोरोना वॉरियर्स : जिंदगी की जंग हारते

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि कोरोना की लड़ाई में किसी स्वास्थ्यकर्मी की जान जाती है, तो दिल्ली सरकार पीड़ित परिवार को एक करोड़ की सहायता राशि प्रदान करेगी। यह घोषणा डाक्टर, नर्स और सफाईकर्मिंयों पर लागू होगी मगर इसमें पुलिसकर्मिंयों और मीडियाकर्मिंयों को शामिल नहीं किया गया है। इसके विपरीत केंद्र सरकार या अन्य राज्य सरकारों की तरफ से देखने को मिला है कि कोरोना से जान गंवाने वाले ‘कोरोना वॉरियर्स’ की मदद के लिए आर्थिक सहायता के रूप में 5 या 10 लाख की मदद पहुंचाई गई है। आखिर, इस मामले में पूरे देश में अलग-अलग नीति क्यों है?

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने एक अध्ययन में इस बात का खुलासा किया है कि आम लोगों में जहां मृत्यु दर 1.7 फीसदी है, वहीं डॉक्टरों में मौत का औसत 16.7 फीसदी है। मतलब, आम लोगों की तुलना में डॉक्टरों पर कोरोना का असर 10 गुना अधिक जानलेवा पाया गया है। हालांकि अधिकांश डॉक्टर इस अध्ययन से सहमत नहीं हैं परंतु वे आम लोगों की तुलना में खुद पर ज्यादा खतरा महसूस करते हैं। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि पिछले दिनों कोरोना का इलाज करते-करते कई डॉक्टरों की मौत हुई हैं। दिल्ली में छतरपुर के राधास्वामी कोविड केयर सेंटर में तैनात डॉ. जावेद अली कोरोना मरीजों का इलाज करते-करते स्वयं कोरोना पॉजीटिव हो गए और एम्स में खुद का इलाज कराते हुए उन्होंने दम तोड़ दिया। एलएनजेपी अस्पताल के वरिष्ठ डॉ. असीम गुप्ता की मौत भी कोरोना वायरस के संक्रमण से हो गई। वहीं इंदौर के डॉ. शत्रुघ्न पंजवानी ने भी कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए अपनी जिंदगी गंवा दी। ऐसी कई घटनाएं देखने को मिल रही हैं। ठीक इसी प्रकार कोरोना से मरने वालों में पुलिसकर्मिंयों की संख्या भी कुछ कम नहीं है। अकेले महाराष्ट्र की बात करें तो अभी तक करीब 46 पुलिसकर्मी कोरोना से दम तोड़ चुके हैं। मध्य प्रदेश में भी कुछ पुलिसकर्मिंयों की मौत हुई हैं जबकि दिल्ली-एनसीआर में भी कई पुलिसकर्मी इस बीमारी के चपेट में आकर अपनी जान गंवा चुके हैं।
जब मीडियाकर्मिंयों की मौत की बात होती है, तो कई पत्रकार ऐसे हैं, जिनकी कहानी बहुत दर्दनाक है। महाराष्ट्र के पूणो शहर के एक निजी चैनल के पत्रकार की मौत हो गई। इस मामले में दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि पत्रकार को पुणो प्रशासन ने न तो समय रहते हुए एंबुलेंस मुहैया कराई, न अस्पताल में कोई बेड। एक घटना में टीवी पत्रकार चंद्रशेखर गुप्ता की मौत भी बेहद दर्दनाक है। लॉकडाउन के दौरान वे अपनी नौकरी पर जाने के लिए पूर्वी दिल्ली के मंडावली से नोएडा अपने दफ्तर रोज पैदल चलकर जाते थे। इसी दिनचर्या में वे कोरोना महामारी के शिकार हो गए। दिल्ली के एक पत्रकार तरुण सिसौदिया ने एम्स में इलाज के दौरान खिन्न होकर चौथी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। वहीं छत्तीसगढ़ के पत्रकार पूरन साहू भी कोरोना बीमारी के भेंट चढ़ गए। लखनऊ के युवा पत्रकार नीलांशु शुक्ला भी इस महामारी से खुद को नहीं बचा पाए। हालांकि इस मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि पीड़ित पत्रकारों के परिवार को सहायतार्थ 10 लाख रुपये की राशि प्रदान की जाएगी लेकिन अब तक ऐसे पत्रकारों को जिला एवं स्थानीय पंचायत स्तर पर ही कुछ मदद मिल पाई है। वहीं सिसौदिया के मामले में केंद्र सरकार ने पत्रकारों की पहल पर 5 लाख रुपये की आर्थिक सहायता उनके परिवार को प्रदान की, लेकिन दुर्भाग्य है कि पत्रकारों पर विपदा में भी उनके संस्थान केवल मूकदशर्क की भूमिका में रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना से बचाव करने वालों को ‘कोरोना वारियर्स’ का नाम दिया था और कहा  था कि अगर वे इनसे प्रभावित होते हैं, या उनकी मौत हो जाती है तो उन्हें यथोचित मदद दी जाएगी, लेकिन देखा जा रहा है कि मदद के मामले में सरकार की तरफ से दोहरे मापदंड अपनाए जा रहे हैं। पीड़ित परिवारों की अनदेखी की जा रही है। जिस वजह से वे या उनका परिवार किसी भी प्रकार की सरकारी सुविधाओं से वंचित हो रहे हैं। खासकर मीडियाकर्मिंयों को अभी तक ‘कोरोना वारियर्स’ की श्रेणी में मान्यता नहीं मिल पाई है। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। सभी राज्य अपने-अपने स्तर से मदद तो कर रहे हैं परंतु कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा। इस दिशा में केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर संयुक्त रूप से कोई कारगर नीति बनाने की जरूरत है।

सुशील देव


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