किसान आंदोलन : जूम करके देखिये
क्या आप जानते हैं। 1952 में देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी कितनी थी और समय के साथ यह कैसे घटती गई है?
किसान आंदोलन : जूम करके देखिये |
यह एक सवाल है जिससे बात शुरू की जा सकती है इक्कीसवीं सदी के दो दशकों में सबसे बड़े आंदोलन की। यह आंदोलन है किसानों का आंदोलन। देश भर के किसान (मुख्य तौर पर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड) दिल्ली की सीमाओं पर प्रदशर्न कर रहे हैं। दिसम्बर की शीतलहरी में उन्हें ऐसा करते हुए अब इक्कीस दिन बीत चुके हैं। सरकार के साथ छह दौर की बातचीत बेनतीजा रही है। सरकार ने लिखित में संशोधनों का प्रस्ताव भेजा है। लेकिन किसानों ने इसे साफ नकार दिया है। यह कहते हुए कि वे तीन कृषि कानूनों को रद्द कराकर ही दम लेंगे। बीच का कोई रास्ता नहीं है।
असल में इस आंदोलन को समझने के लिए यह समझना बहुत आवश्यक है कि ये किसान किस कारण से जान तक देने को आतुर हैं। इसके लिए यह समझना आवश्यक है कि कैसे कृषि की हिस्सेदारी घटती गई है, और अन्य क्षेत्रों की भूमिका भारतीय अर्थव्यवस्था में बढ़ती रही है। मसलन, 1952 में देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी करीब 44 फीसदी थी। समय के साथ इसमें गिरावट की गति किस कदर तेज हुई है, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2012 में यह करीब 17 फीसदी रह गई। वर्ष 2019-20 का आंकड़ा तो हैरान करने वाला है। अब यह 15.96 प्रतिशत रह गई है जबकि सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 49.88 फीसद। सनद रहे कि विनिर्माण क्षेत्र में हुई प्रगति भी उल्लेखनीय है। कुल मिलाकर तथ्य यह है कि जैसे-जैसे देश में उद्योगों की भूमिका बढ़ी, व्यापार आगे बढ़ा, कृषि पिछड़ती चली गई। इसके साथ ही अवधारणाएं भी बदलीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कृषि राष्ट्र की प्राथमिकता में शामिल थी क्योंकि जीडीपी में उसकी सबसे अधिक भूमिका थी। जैसे-जैसे उसकी भूमिका में कमी आई, सरकारों की प्राथमिकता का स्तर भी घटता चला गया।
अभी जो स्थिति है, उसके मुताबिक सेवा क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता में है। इसकी एक वाजिब वजह भी है। देश की कुल जीडीपी में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 50 फीसदी है। सरकार ने इसी सेवा क्षेत्र को तवज्जो दी है। कृषि के लिए तीन कानून लाए गए हैं। पहले तीनों कानूनों पर चर्चा कर लें। पहला कानून है, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020। इसके बारे में सरकारी दावा है कि यह कानून किसान को अपनी उपज मंडियों से बाहर सीधे बाजार में बिना दूसरे राज्यों को टैक्स चुकाए बेचने का अधिकार देता है। सरकार के हिसाब से यह उसका क्रांतिकारी कदम है। लेकिन किसान कह रहे हैं कि यह मंडियों को खत्म करने का प्रयास है, और किसानों को बाजार के हवाले करने की साजिश है। दूसरा कानून है मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध अधिनियम, 2020। इसके मुताबिक किसान संविदा आधारित खेती कर सकेंगे और उसकी अपने स्तर पर मार्केटिंग भी कर सकते हैं जबकि किसान सशंकित हैं कि छोटी जोत वाले किसान इस व्यवस्था में पिसकर रह जाएंगे। उनको कोई पूछने वाला नहीं रहेगा।
किसानों का तो यहां तक कहना है कि सरकार इसके जरिए उन्हें अपने ही खेत का मालिक से नौकर बनाने जा रही है। तीसरा कानून है आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 2020। यह कानून उत्पादन, भंडारण के अलावा दलहन, तिलहन और प्याज की बिक्री को युद्ध जैसी असाधारण परिस्थितियों के अलावा नियंत्रण से मुक्त करने की बात कहता है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यह जमाखोरी बढ़ाने वाला कानून है। किसान भी यही मानते हैं कि यह जमाखोरी को कानूनी संरक्षण देने का सरकारी प्रयास है। इसके पहले कि हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचें, हमें कुछ और बातों पर संज्ञान लेना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 2013 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक जिन किसानों के पास 0-1 एकड़ जोत रही, उनमें से 41 प्रतिशत किसानों ने साहूकारों से कर्ज लिए। चौदह प्रतिशत किसानों ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों से कर्ज लेकर खेती की। इस प्रकार कुल 55 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों ने बैंकों की ओर रुख नहीं किया।
इसके विपरीत जो बड़े किसान हैं, जिनके पास दस एकड़ से अधिक जोत है, उनमें 80 फीसदी किसानों ने बैंक से कर्ज लिए। बाद के वर्षो में इन दोनों आंकड़ों में समानुपातिक वृद्धि हुई। यह आंकड़ा मौजूदा आंदोलन के मूल में है। बड़े किसानों के ऊपर बैंकों का कर्ज है। उनके ऊपर ईएमआई चुकाने की मजबूरी है, तो छोटे और सीमांत किसानों के पास रेहन रखी गई यानी साहूकारों के यहां गिरवी रखी गई जमीन छुड़ाने की। ऐसे में एपीएमसी एक्ट के प्रभावकारी ढंग से लागू नहीं होने और फसल की वाजिब कीमत नहीं मिलने से वे गहरे संकट में घिर गए हैं। यही वजह है कि सरकार के बार-बार आश्वासन के बावजूद किसान तीनों कृषि कानूनों को खत्म करवाना चाहते हैं।
अब इस आंदोलन के स्वरूप पर बात करते हैं। असल में इस आंदोलन में जितनी संख्या बड़े किसानों की है, उससे कम छोटे और सीमांत किसानों की नहीं है। छोटे और सीमांत किसानों के कारण ही यह आंदोलन इतनी आयु पा सका है, और इसकी इतनी जीवटता है कि सरकार भी उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पा रही। दरअसल, यही इस आंदोलन का सबसे मजबूत पक्ष है जिसे केंद्र सरकार समझ कर भी नजरअंदाज कर रही है।
वह इसे छोटे किसानों का आंदोलन मानकर बड़े आंदोलन को निमंतण्रनहीं देना चाहती। इसकी वजह यह है कि यदि आज सरकार अपने फैसले को वापस लेती है, तो कल उसे भूमि सुधार, सीलिंग से फाजिल जमीनों का वितरण, भूमिहीनता के सवाल के अलावा शिल्पकार और समाज के अन्य लोगों के आंदोलनों का भी सामना करना पड़ेगा। बहरहाल, यह आंदोलन एक नजीर है नवउदारवादी नीतियों के विफल होने की। सरकार भूल रही है कि सेवा क्षेत्र की साख तभी तक है जब तक कि बहुसंख्यकों के पास क्रय क्षमता है। यदि किसानों की वित्तीय स्थिति नहीं संभली और कृषि के क्षेत्र में रोजगार की संभावना मजबूत नहीं हुई तो मुमकिन है कि सेवा क्षेत्र में हुआ विस्तार रेत के महल की तरह भरभराकर गिर जाए।
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