दिल्ली दंगा : बचाव में बेचारगी!

Last Updated 13 Mar 2020 04:06:58 AM IST

दिल्ली विभाजन के बाद की सबसे भयानक हिंदू-मुस्लिम हिंसा पर संसद में बहुप्रतीक्षित चर्चा में गृहमंत्री अमित शाह अपनी और अपनी पुलिस की भूमिका का बचाव करते-करते, इसका दिखावा करने की हास्यास्पद हद तक चले गए कि उनकी सरकार, हिंदू-मुसलमान सब को वाकई एक ही नजर से देखती है।




दिल्ली दंगा : बचाव में बेचारगी!

शाह का यह कहना अपने आप में तो गलत नहीं था कि जो 53 लोग मारे गए, जो सैकड़ों घायल हुए, जो सैकड़ों घर-दुकान उजड़े, जले, जो हजारों बेघर हुए, उनमें हरेक भारतीय था, लेकिन जब हमले का शिकार और हमला करने वाला, दोनों भारतीय हों, इसकी दुहाई देना कि हम पीड़ितों का धर्म नहीं देखते, उनके कपड़े नहीं देखते; क्या हमला करने वालों को बचाना ही नहीं बन जाता है। दुर्भाग्य से मोदी-शाह सरकार इस तरह के हथकंडों से, 23 से 26 फरवरी तक पूर्वी दिल्ली में हुई भयानक सांप्रदायिक हिंसा के लिए अपनी जिम्मेदारी से बचने की ही नहीं, उस हिंसा के वास्तविक दोषियों को बचाने की ही कोशिशें कर रही है, लेकिन शासन-अनुमोदित नरसंहार के आयोजकों से इसके सिवा और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? वैसे इस हिंसा में मोदी-शाह सरकार किस पाले में है, इसका औपचारिक एलान तो इस हिंसा के कवरेज के लिए दो मलयालम समाचार चैनलों, एशिया नेट तथा मीडिया वन के खिलाफ मोदी सरकार की दंडात्मक कार्रवाई से ही हो गया था।

यह दूसरी बात है कि दोनों चैनलों के खिलाफ 48 घंटे की पाबंदी का एलान करने के कुछ घंटों में ही फैसले को वापस लेना पड़ा। लेकिन इस रोक से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, इस रोक के लिए मोदी सरकार के सूचना व प्रसारण मंत्रालय द्वारा दिया गया कारण। कारण था चैनलों की रिपोर्ट का कथित रूप से पूर्वाग्रहपूर्ण होना। और यह पूर्वाग्रह किसके खिलाफ है? सरकार की शिकायत थी कि ये रिपोर्टे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) समर्थकों के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण हैं, जिन्हें इनमें हमलावर बताया गया था! उसके ऊपर से ये रिपोर्ट आरएसएस पर भी सवाल उठाती थीं और दिल्ली पुलिस की आलोचना करती थीं! संबंधित खबरिया चैनलों पर अपनी कार्रवाई और उससे भी बढ़कर उस पर पक्षपात के इन आरोपों से, मोदी सरकार ने कम-से-कम इतना जरूर साबित कर दिया कि हिंसा में वह किस के पक्ष में और किसके खिलाफ थी।

बेशक, मोदी सरकार की और इन उग्र भीड़ों तथा उनकी मददगार पुलिस की मिलीभगत की सचाई को दबाने की सारी कोशिशों के बावजूद, जिसमें पत्रकारों की पिटाई, उनके कैमरों व फोनों में तस्वीरें व वीडियो डिलीट करने, उन्हें घटनाओं की कवरेज करने से रोकने से लेकर, जगह-जगह लगे खुफिया कैमरे खोज-खोजकर नष्ट किए जाने तक शामिल था, देशी-विदेशी मीडिया व सोशल मीडिया के कवरेज से यह सचाई सामने तो पहले ही आ चुकी थी। बहरहाल, मोदी सरकार ने इस कार्रवाई के जरिए औपचारिक रूप से इसका एलान कर दिया कि वह इस हिंसा में साफ तौर पर सीएए-विरोधियों के जवाब के नाम पर, जिसे आसानी से मुसलमानों के विरोध में बदल दिया गया, सड़कों पर उतारी गई हिंदुत्ववादी भीड़ों के पाले में ही खड़ी हुई थी और दंगों के बाद भी खड़ी है। यही चीज है जो इस हिंसा का चरित्र, एक सांप्रदायिक दंगे के बजाए अल्पसंख्यकों के नरसंहार का बना देती है।
नरसंहार या अंग्रेजी में पोग्राम की, ऑक्सफोर्ड व वैबस्टर की डिक्शनरियों से लेकर एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका तक, सभी मानक परिभाषाओं के अनुसार, जो महत्त्वपूर्ण चीज नरसंहार को एक साधारण दंगे से अलग करती है, वह है अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर की जाने वाली इस हिंसा के पीछे, शासन का हाथ या उसका अनुमोदन होना। दंगे की रिपोर्टिग के लिए दो चैनलों पर लगाई पाबंदी दिल्ली की इस हिंसा के शासन समर्थित या अनुमोदित होने का ही सबूत है। इस नरसंहार के शासन-समर्थित होने अनेक और साक्ष्य भी, पहले ही मौजूद थे। इनमें एक साक्ष्य तो अपने उकसावेपूर्ण सार्वजनिक हस्तपेक्ष के जरिए, सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ तथा व्यवहारत: मुसलमानों के खिलाफ भीड़ की हिंसा के लिए ट्रिगर मुहैया कराने वाले कपिल मिश्र जैसे नेताओं को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए, मोदी सरकार का किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार होना ही था। 23 फरवरी को कपिल मिश्र द्वारा उकसाए जाने के बाद, उत्तेजित बहुसंख्यकवादी भीड़ के सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा शुरू किए जाने तथा अगली सुबह से बड़े पैमाने पर बाकायदा हिंसक टकराव फूट पड़ने के बाद भी केंद्रीय गृहमंत्री, अमित शाह के नियंत्रण में काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने, कपिल मिश्र के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं की और इसका असर हमलावर बहुसंख्यक भीड़ों के पुलिस को अपने साथ मानकर तथा जानकर, पूरी बेफिक्री से हमले करने के रूप में सामने आया। और जब कुछ मानवाधिकार ग्रुपों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रार्थना पर, दिल्ली हाईकोर्ट ने आधी रात को आपात सुनवाई आयोजित कर, पुलिस से सीधे सवाल किया था कि प्रकटत: सांप्रदायिक उकसावे के ऐसे मामलों में, एफआइआर क्यों नहीं की गई? इस सुनवाई में केंद्र सरकार के सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने हाईकोर्ट के दो सदस्यीय पीठ के इस मुद्दे पर विचार करने का विरोध। इसके बावजूद, जब हाईकोर्ट ने पुलिस से अगले दिन तक उक्त एफआइआर दर्ज न किए जाने पर जवाब मांगा, तो उक्त दो सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष, जस्टिस मुरलीधर का पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के लिए तबादला किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम की पंद्रह दिन पुरानी सिफारिश को, हाथ के हाथ तबादले के आदेश में तब्दील कर यह सुनिश्चित किया गया कि जस्टिस मुरलीधर, अगले दिन की सुनवाई में हिस्सा नहीं ले सकें।
इसी सचाई के एक और भी अहम साक्ष्य में मोदी सरकार ने, दिल्ली की हिंसा में मौतों का आंकड़ा पचास से ऊपर निकल जाने और सैकड़ों के गंभीर रूप से घायल तथा हजारों लोगों के घर, दुकानें, रोजगार के साधन गंवा बैठने के बावजूद, पूरे एक हफ्ते संसद में इस पर चर्चा की इजाजत नहीं दी। कटे पर सांप्रदायिक नमक छिड़कने वाली दलील यह कि सरकार संसद में चर्चा के लिए तो तैयार थी, लेकिन सिर्फ होली के बाद चर्चा के लिए! होली से पहले चर्चा कराना उसे इसके बावजूद मंजूर नहीं हुआ कि विपक्ष के एक स्वर से इस चर्चा की मांग किए जाने और सरकार के इससे इनकार पर अड़े रहने के चलते, हफ्ते भर तक संसद के दोनों सदनों में कोई चर्चा तो नहीं ही हुई, उसके ऊपर से लोक सभा में सात विपक्षी सदस्यों को शेष सत्र के निलंबित किए जाने जैसी असामान्य स्थिति भी पैदा हो गई। यह इसलिए और भी शर्मनाक था कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर ब्रिटिश संसद तक में, दिल्ली की हिंसा पर चर्चा हो चुकी थी, लेकिन दिल्ली में ही बैठी देश की संसद में ही नहीं।

राजेंद्र शर्मा


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