वैश्विकी : भारत का नया सरदर्द
अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते को लेकर इस क्षेत्र के देश भावी घटनाक्रम का अनुमान लगा रहे हैं।
वैश्विकी : भारत का नया सरदर्द |
भारत, चीन और ईरान की सरकारें इस बात का आकलन कर रही हैं कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में कौन-सी राजनीतिक ताकत प्रभावी होगी। जहां तक पाकिस्तान का संबंध है, वह इस घटनाक्रम को लेकर विजय की मुद्रा में है। दुनिया में अलग-थलग पड़े पाकिस्तान को आज अमेरिका अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए उसे अपने सहयोगी के रूप में देख रहा है। अमेरिका की इस निर्भरता को पाकिस्तान भुनाने की पूरी कोशिश करेगा। जहां तक अफगानिस्तान की घरेलू राजनीति का सवाल है, पाकिस्तान की शह पर पलने वाला तालिबान गुट उसका एक बड़ा रणनीतिक सहयोगी साबित हो सकता है। भविष्य में यदि अफगानिस्तान की केंद्रीय सरकार कमजोर होती है और तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो यह भारत के लिए खतरे की घंटी होगी।
अतीत का घटनाक्रम बताता है कि अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी भी एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत हुई थी। वर्ष 1988 में हुए इस समझौते के चार साल बाद तालिबान ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया था। दुनिया भर की नजर इस ओर लगी है कि क्या इस बार भी इतिहास अपने आपको दोहराएगा।
नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए चुनौती और बड़ी है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के बारे में अपना दुष्प्रचार अभियान तेज कर रखा है। भारत सरकार के पुख्ता सुरक्षा उपायों के कारण सीमा पर आतंकवाद के मंसूबे सफल नहीं हो पा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय जगत में भी पाकिस्तान समर्थन हासिल करने में असफल रहा है। ऐसे में तालिबान को हासिल रणनीतिक वैधता और राजनीतिक गतिविधियों की खुली छूट पाकिस्तान के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। तालिबान अफगानिस्तान में भारत विरोधी माहौल बना सकता है। इतना ही नहीं, वह अपने आतंकवादियों को भारत की ओर मोड़ सकता है। इस काम में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई पूरी तरह से मददगार बनेगी।
पिछले महीने की उन्तीस तारीख को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच शांति समझौता हुआ। इस समझौते को इस मायने में ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि लगभग तीस देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विदेश मंत्री और अधिकारी इसके साक्षी बने। इस शांति समझौते के प्रावधानों के मुताबिक, अमेरिका चौदह महीने के अंदर अफगानिस्तान से अपने सैन्य बलों को वापस बुला लेगा।
अमेरिका और अफगानिस्तान ने संयुक्त रूप से घोषणा की है कि काबुल में अमेरिकी सैन्य बलों की संख्या घटाकर आठ हजार छह सौ की जाएगी। शांति समझौते के उद्देश्यों के मुताबिक, सभी घोषणाएं 135 दिन में लागू की जाएंगी। लेकिन एक ओर जहां अमेरिका अपने सैनिकों की संख्या घटाकर आठ हजार छह सौ करने के लिए प्रतिबद्ध है तो दूसरी ओर अधिकारियों के मुताबिक, अगर अफगान पक्ष समझौते के किसी प्रावधान को लागू नहीं कर पाता है तो अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के लिए बाध्य नहीं है।
भारत ने अमेरिका-तालिबान शांति समझौते का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत की सुसंगत नीति उन सभी अवसरों का समर्थन करती है जो अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता ला सकते हैं। समझौता होने के तीन-चार दिन बाद ही तालिबान ने अफगानिस्तान में हमला कर दिया। तालिबान की इस कार्रवाई के बाद अमेरिका ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए हमला किया। इस हमले के बाद से अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते की सफलता को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे हैं। समझौता होने के पहले भी कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने इसकी सफलता को लेकर संदेह जाहिर किया था। माना जा रहा है कि समझौता अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने में नाकाम रहेगा और संभवत: वहां दूसरा गृह युद्ध छिड़ सकता है क्योंकि तालिबान किसी समझौते से प्रतिबद्ध नहीं रहा है। जहां तक भारत का सवाल है तो उसे आसन्न खतरे से निपटने के लिए तैयार रहना ही चाहिए।
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