मीडिया : मीडिया का दंगा चिंतन
दंगों के बाद, मीडिया में, दंगों के वीडियोज पर घमासान छिड़ा हुआ है।
मीडिया : मीडिया का दंगा चिंतन |
और क्यों न हो?
जब हर दंगाई और गैर-दंगाई के हाथ में स्मार्टफोन हो और मीडिया तथा सोशल मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, ‘घृणा के सीरियल’ को प्रश्रय देता रहा हो तो ऐसा घमासान तो होना ही हुआ। ऐसे घमासान को रोका भी कैसे जा सकता है।
इन दिनों ऐसा ही एक नया वीडियो खबर चैनलों में दिखाया हर दिन बार-बार जा रहा है, जिसमें दिल्ली पुलिस के डीसीपी अमित शर्मा की जीप पर भीड़ हमला कर रही है और अमित शर्मा बुरी तरह घायल हुए बताए जा रहे हैं। उनको बचाने आए हवलदार रतन लाल भी भीड़ की हिंसा के शिकार हो चुके हैं। इसी क्रम में मौका ए वारदात पर घायल हुए पुलिस अफसर अनुज कुमार इस वीडियो की व्याख्या करते दिखाई पड़ रहे हैं।
यह वीडियो टॉप एंगिल से जाफराबाद-चांदबाग के पास की बड़ी सड़क पर पत्थर मारते, लाठियां और रॉड भांजते दंगाइयों की एक बड़ी भीड़ को जीप में बैठे डीसीपी अमित कुमार पर हमला करते दिखाता है।
‘स्लो स्पीड’ व ‘क्लोज’ में साफ दिखता है कि अनगिनत युवा और बहुत-सी ‘काले बुरकेवाली औरतें’ पत्थर मारती, लाठी भांजती नजर आती हैं। उनके हाथों में पत्थर साफ दिखाई दे रहे हैं।
‘बुरका’ इन दंगों एक नया चिह्न बन गया है। इससे पहले के किसी दंगे में इतने ‘बुरके’ नहीं दिखे। यही नहीं ये वीडियोज दंगाइयों की प्लानिंग को दिखाते हैं कि ‘किस तरह हिंसा शुरू करने से पहले दंगाइयों ने इलाके के सीसीटीवी कैमरों को तोड़ा ताकि वे सीसीटीवी फुटेजों की पकड़ में न आ सकें।
वीडियो दिखाने के बाद एक एंकर एक चर्चाकार से पूछता है कि क्या यह दंगा पूर्व-नियोजित था वरना सीसीटीवी के कैमरे क्यों तोड़े जाते? और दंगे में बड़ी संख्या में बुरकेवालियों का शामिल दिखना क्या बताता है? चर्चाकार बोलने लगा कि यह आप कैसे कह सकते हैं कि दंगा इसी भीड़ ने शुरू किया? और जहां तक बुरका पहने औरतों के दंगों में शामिल होने की बात है तो हिंदू भी तो बुरका पहन कर आ सकते हैं ताकि दूसरा समुदाय बदनाम हो।
एंकर हैरान होकर कहता है कि सर! आप वीडियो तो देखें और कल को कोई यह भी तो कह सकता है कि हिंदुओं को बदनाम करने के लिए कुछ लोग भगवा पहन कर या टीका लगा कर आ गए क्योंकि ऐसे लोग भी दंगों में दिखे हैं। ऐसे लोगों के भी वीडियो देखने में आए हैं।
लेकिन चर्चाकार अपनी पर अड़ा रहता है।
यह वीडियो कई चैनलों पर दिखाया गया है और चरचाएं भी कराई गई हैं और हर हर चैनल में कई चरचाकार यही कहते दिखे हैं कि ‘बुरका’ तो कोई भी पहन कर आ सकता है ताकि दंगे का ठीकरा ‘बुरके’ के सिर फोड़ा जा सके। ऐसे चैनलों के बरक्स एक चैनल तो ऐसा भी रहा जो भीड़ पर गोली चलाते और एक सिपाही के ऐन सामने पिस्तौल तानने वाले ‘मोहम्मद शाहरुख’ को ‘अनुराग मिश्रा’ तक बता चुका है। यही नहीं, आईबी मंत्रालय ने जिन दो चैनलों को अड़तालीस घंटे तक प्रसारण से वंचित किया है, उन पर मंत्रालय का यह आरोप है कि उन्होंने एक खास समुदाय को ‘विक्टिम’ की तरह अधिक दिखाया है जबकि दूसरे समुदाय तथा पुलिस को दंगों के लिए जिम्मेदार दिखाया है।
इसी प्रकार, कुछ विदेशी अखबारों और चैनलों ने पूर्वी दिल्ली की हिंसा को ‘बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों पर एकतरफा हिंसा’ बताकर इसे ‘पोग्रोम’ और कुछ ने इसे ‘जेनोसाइड’ यानी ‘राज्य-समर्थित नरसंहार’ बताया लेकिन ‘दंगा’ हरगिज न बताया जबकि कई एंकरों और विशेषज्ञों ने इसे भीषण ‘दंगा’ ही सिद्ध किया, ‘पोग्रोम’ या ‘जेनोसाइड’ नहीं।
तीन दिन तक चले दंगों की लाइव रिपोर्टे या मेडिकल और पोस्ट-मार्टम रिपोर्टे साफ कहती हैं कि इन दंगों में दोनों समुदायों के लोगों की जानें गई और प्रॉपर्टी भी जली। साफ है कि यह एक बेहद भीषण ‘दंगा’ तो रहा लेकिन ‘पोग्रोम’ या ‘जेनोसाइड’ नहीं रहा। फिर भी ब्लेमगेम से भरी ऐसी बहसें अभी तक जारी हैं और जारी रहनी हैं और ‘ब्लेमगेम’ की इस राजनीति का आप कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
जमीनी दंगा भले खत्म हो गया हो,अपना मीडिया अभी तक एक वैचारिक दंगे में व्यस्त है। आखिर, ऐसी दंगाई मानसिकता वाले मीडिया का क्या कर सकते हैं आप?
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