गंगा : समझने को चेतना जरूरी

Last Updated 05 Mar 2020 05:13:31 AM IST

गंगा को गहराई से समझने के लिए एक चेतना की जरूरत है। सिर्फ आस्था में फंस कर मालूम नहीं किया जा सकता कि यह किस हाल में है।


गंगा : समझने को चेतना जरूरी

हमें समझना होगा कि प्रकृति हमें बनाती है। इसे संरक्षित रखने की जिम्मेदारी हमारी है। इसीलिए पर्यावरण की रक्षा का सवाल और हमारी आस्था का व्यवहार, दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। अभी सरकारें पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे आने वाले व्यक्तियों को दुश्मन मानती हैं, उन्हें विकास विरोधी ठहराया जाता है। गंगा के आरती उत्सव बहुत हो गए। हमें यह बात भी समझनी होगी कि इससे गंगा मैली भी तो हो रही है।
प्राचीन व्यवस्था तो ऐसी नहीं थी। गंगा इसलिए निर्मल थी कि राजा, समाज और संत,  तीनों गंगा को न सिर्फ  अपना मानते थे बल्कि  उसके वास्तविक संरक्षक भी हुआ करते थे। आज जिस चेतना की बात की जा रही है, उससे आशय यह है कि गंगा बेसिन के जो 11 राज्य हैं, उनके विश्वविद्यालय, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के शिक्षक और विद्यार्थियों में गंगा को लेकर एक संवाद शुरू हो। गंगा बेसिन प्राधिकरण ने सात साल की मेहनत के बाद जो मास्टर प्लान तैयार किया था, उसे ही चर्चा के केंद्र में रखा जाना चाहिए। यह  गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए 2015 में दिया गया सबसे वैज्ञानिक मॉडल है, जिसमें कहा गया था कि लीन सीजन में भी गंगा को 50% फ्लो दिया जाना चाहिए। इसको नजरंदाज करके 10 अक्टूबर, 2018 को सरकार ने जो अधिसूचना निकाली है, उसमें गंगा के 20% फ्लो की बात कही गई है।

बांध बनाने का काम कर रही कंपनियां  सिंगौली भटवारी (एलएंडटी), फाटा व्यूम (लानको), तपोवन (एनटीपीसी) और पीपलकोटी (टीएसडीसी) तो गंगा का 5% ही फ्लो देना चाहती हैं। आश्चर्य का विषय है कि गंगा के लिए भारत सरकार के कहने पर आईआईटी कंसोर्टयिम ने जो वैज्ञानिक रिपोर्ट तैयार की थी, उस पर अमल नहीं किया जा रहा। इस रिपोर्ट में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गंगा की समग्र योजना के बिना टुकड़े-टुकड़े में काम करने से कुछ हासिल नहीं होगा। दीर्घकालिक प्लान की आवश्यकता है। कोई यह समझता है कि सीमेंट कंक्रीट के सुंदर घाट बना देने से गंगा की समस्या खत्म हो जाएगी तो इसे नासमझी ही कहा जाएगा।
गंगा पर वैज्ञानिक रिपोर्ट को समझने के लिए इसके लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे व्यक्तियों की पृष्ठभूमि में जाना होगा। इस सवाल का भी जवाब आना चाहिए कि मैं गंगा के लिए चेतना की बात किसलिए कर रहा हूं। तरुण भारत संघ के जरिए मैं छोटी नदियों को पुनर्जीवित करने के काम में लगातार सफल हो रहा था। गंगा बेसिन की सात नदियों, जो एकदम मृत प्राय: हो चुकी थीं, में फिर से जीवन लौट आया। हालांकि इसमें 27 साल लगे। गंगा बचाने के लिए अभियान चला रहे प्रो. जीडी अग्रवाल 2006 में मुझे यह कहकर गंगोत्री ले गए कि मां गंगा बीमार है, अब इसकी सेवा करने का समय आ गया है। तब लुहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैरोघाटी में तीन बांधों की वजह से गंगा टनल में ही बहनी थी। इधर दिल्ली में 2007 में यमुना खादर को बचाने की भी आवश्यकता आ पड़ी।
इसके लिए अक्षरधाम और खेलगांव को रोकने के लिए 2007 में दिल्ली में मैंने 31 दिन का अनशन किया था। अक्षरधाम और खेलगांव का निर्माण तो नहीं रुका लेकिन अनशन का असर हुआ कि दिल्ली के मयूर विहार में राजहंस कंपनी जो छोटा विमान तल बनाने वाली थी, उस पर रोक लग गई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि जन दबाव में उन 300 कंपनियों को अपने पैर पीछे खींचने के लिए विवश होना पड़ा जो युमना खादर में कुछ न कुछ निर्माण कार्य करना चाहती थीं। इसी दौरान प्रो. अग्रवाल ने उत्तरकाशी में मणिकर्णिका घाट पर गंगा के लिए आमरण अनशन शुरू किया था, जिससे बांध बनाने वाली कंपनियां और इनके समर्थक राजनेता बौखला गए थे। उन्होंने हमला भी किया। इस अनशन का असर भी हुआ। 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया। गंगा बेसिन प्राधिकरण की भी स्थापना हुई। तीन बांधों का काम बंद हुआ। दो सौ 65  प्रस्तावित बांध रद्द हुए।
20 अगस्त, 2010 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि अविरलता के बिना गंगा की निर्मलता संभव नहीं है। गौमुख से उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया। कहा गया कि नये बांध नहीं बनेंगे। इसके बाद गंगा के हितचिंतक सरकार पर भरोसा करके 3-4 साल तक शांत रहे कि अब गंगा के लिए किसी आंदोलन की जरूरत नहीं होगी क्योंकि सरकार खुद इसकी अविरलता की बात कर रही थी। जब असल में कुछ नहीं हुआ तो 2012 में फिर से गंगा को लेकर आंदोलन की जमीन तैयार होने लगी। इधर, तत्कालीन सरकार को अपदस्थ करने में जुटे विपक्षी नेताओं ने कहा कि गंगा की निर्मलता और अविरलता उनके एजेंडे में भी है, तो उन पर भी भरोसा कर लिया गया। विपक्षी अब सरकार में आ चुके थे।
2017 तक कुछ भी ठोस नहीं हुआ तो प्रो. अग्रवाल ने जनवरी, 2018 में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर वादा याद दिलाया। मार्च में फिर पत्र लिखा कि आंदोलन शुरू करना पड़ेगा। जवाब नहीं आने पर प्रो. अग्रवाल ने 22 जून को मातृ सदन हरिद्वार में आमरण अनशन शुरू कर दिया। गंगा के लिए संघर्ष करते हुए ही  11 अक्टूबर, 2018 को प्राण त्याग दिए। इसके बाद स्वामी आत्मबोधानंद ने भी अनशन किया। जब मैं गंगा के लिए चेतना की बात करता हूं तो कहता हूं कि बार-बार गंगा मां के लिए अनशन क्यों करने पड़ते हैं? स्वामी निगमानंद अनशन करते हुए देह त्याग चुके हैं। साध्वी पद्मावती का अनशन 15 दिसम्बर, 2019 से जारी है। स्वामी शिवानंद सरस्वती और उनके शिष्य 61 बार अनशन कर चुके हैं। फिर भी सरकार और समाज में गंगा चेतना नहीं जगी। लोकतंत्र में  लोक के पास पहुंच कर चेतना जगाने के लिए अविरल गंगा सद्भावना यात्रा एवं अविरल गंगा जल साक्षरता यात्रा के माध्यम से हमने पांच वर्ष के प्रयासों के बाद भी अपेक्षित सफलता नहीं पाई है। गंगा चेतना के लिए भारतीय आस्था और पर्यावरण रक्षा का संदेश देने वाली कई कोशिशों के बाबजूद हमें सफलता नहीं मिली है, इसलिए हमारी आत्मा नई चेतना के नये तरीके खोजने में व्यस्त है। भारतीय ज्ञान तंत्र पर विश्वास है, इसलिए उसी के प्रकाश के रास्ते गंगा चेतना के रास्ते खोज रहे हैं।
(लेखक रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित हैं)

राजेन्द्र सिंह


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