गुरु गोविंद सिंह : कुरबानी के अप्रतिम महायोद्धा
इतिहास साक्षी है कि जब भी विदेशी और विधर्मी आक्रमणकारियों द्वारा भारत भूमि पर आक्रमण करने और यहां के सनातन जीवन मूल्यों को नष्ट करने का प्रयत्न किया गया तो हमारे आध्यात्मिक मनीषियों ने अपने-अपने तरीकों से डटकर उनसे मोर्चा लिया।
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विश्व की बलिदानी परंपरा में अद्वितीय स्थान रखने वाले सिख समाज के दशम गुरु गोबिंद सिंह की गणना इसी श्रेणी के महामानवों में होती है। 1666 में पौष सुदी की सातवीं तिथि (22 दिसम्बर) को बिहार प्रांत के पटना शहर में नवें सिख गुरु तेग बहादुर की पत्नी गूजरी देवी के गर्भ से जन्मे इस महामानव की वीरता, बलिदान और आध्यात्मिक दर्शन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। ‘चिड़ियन से मैं बाज तड़ाऊ, सवा लाख से एक लड़ाऊं, तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊं’ का ओजस्वी नारा बुलंद करने वाले दशम गुरु बेमिसाल योद्धा थे।
देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना को मूर्त रूप देने के मकसद से 1699 में बैसाखी के दिन पंजाब के आनंदपुर साहिब में एक लाख गुरुभक्तों के महासमागम में जब गुरु जी ने पांच शिष्यों के शीश मांगे तो सारा वातावरण सतश्री अकाल के जयकारों से गूंज उठा। इस मौके पर पांच समर्पित स्वयंसेवकों (दयाराम, धर्म चंद, हिम्मत राय, मोहकम चंद और साहिबराम) की प्रतीकात्मक बलि लेकर खालसा पंथ की बुनियाद रखी ग्ई। ये पांचों प्यारे देश के प्रत्येक कोने से थे। एक लाहौर, दूसरा मेरठ, तीसरा कर्नाटक, चौथा द्वारका तथा पांचवां केरल से। खालसा यानी खालिस व्यक्ति; जो देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए अपना तन-मन-धन सब सहर्ष कुर्बान कर सके और निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। इस मौके पर गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का एक नया सूत्र दिया , ‘वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह।’ इस मौके पर उन्होंने खालसाओं को ‘सिंह’ का नया उपनाम दिया और युद्ध की प्रत्येक स्थिति में तत्पर रहने के लिए पांच चिह्न धारण करना अनिवार्य घोषित किया। इस मौके पर श्री गुरु द्वारा दिया गया कच्छ, कड़ा, कृपाण, कंघा व केश का दर्शन मूलत: भारतीय संस्कृति पर आधारित है। खालसा पंथ के सृजन के समय उन्होंने इसे ईश्वरीय कार्य की संज्ञा देते हुए घोषणा की थी, ‘आज्ञा भई अकाल की तभी चलायो पंथ।’ इस मौके पर गुरु जी ने यह भी कहा-‘खालसा प्रगटयो परमात्मन की मौज, खालसा अकाल पुरख की फौज।’ वे खुद को कृष्ण की गीता के आश्वासन ‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। के साथ स्वयं को जोड़ते हुए अपनी आत्मकथा ‘बचित्र नाटक’ में लिखते हैं, ‘या ही काज धरा हम जनमे, समझ लेहू साध सब मनमे। धरम चलावन संत उबारन, दुष्ट सभी को मूल उपारन।
उनके द्वारा स्थापित खालसा पंथ आधुनिक प्रजातंत्र का प्रतीक माना जाता है क्योंकि इस पंथ में हिंदू समाज के विविध वर्गों एवं वर्णो से लोगों को दीक्षित किया है। कालांतर में इसी खालसा पंथ के शूरवीरों में से बंदा सिंह बहादुर (वीर बैरागी), सेनानायक बाबा दीप सिंह, सरदार श्याम सिंह अटारी वाले, महाराजा रणजीत सिंह और सरदार हरि सिंह नलवा जैसे शूरवीर उत्पन्न हुए जिन्होंने कश्मीर से मुगलों का सर्वनाश करने से लेकर अफगानिस्तान तक पठानों को परास्त करते हुए काबुल और कंधार तक भारत की शौर्य पताका लहराई। इस पंथ के माध्यम से गुरु जी ने समाज में एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा जिसमें जाति-भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिट गया।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक गुरु गोबिंद सिंह ने अपने जीवनकाल में पांच प्रमुख युद्ध लड़े-1689 में हिमालय क्षेत्र के पर्वतीय राजा भीमचंद के खिलाफ भंगारी का युद्ध, 1690 में राजा भीमचंद के अनुरोध पर मुगलों के खिलाफ नादौन का युद्ध, 1700 में मुगलों और पर्वतीय राजाओं की संयुक्त सेना के खिलाफ आनंदपुर साहिब का युद्ध, 1703 में मुट्ठी भर साथियों के साथ मुगल सेना के खिलाफ चमकौर का युद्ध तथा 1704 में गुरु जी के नेतृत्व में अंतिम महत्त्वपूर्ण युद्ध मुक्तसर का युद्ध। इतिहासकारों के मुताबिक उन्होंने मुगल आक्रांता औरंगजेब के दांत खट्टे कर दिए थे।
गुरु गोबिंद सिंह के अनूठे व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनका सर्ववंशदानी होना। केवल पिता ही नहीं, उन्होंने अपने बेटों को शस्त्र प्रदान करते हुए कहा था, ‘जाओ दुश्मन का सामना करो और शहीदी जाम को पियो।’ सर्वविदित है कि उनके दो बड़े पुत्र चमकौर की लड़ाई में शहीद हुए तो दो छोटे पुत्र सरहिंद की दीवारों में जिंदा ही चिनवा दिए गए थे। गौरतलब हो कि भाई दया सिंह ने जब चमकौर के युद्ध में शहीद हो जाने वाले वाले गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्रों अजीत सिंह और जुझार सिंह के पार्थिव शरीर को चादर से ढंकने की आज्ञा मांगी तो दशमेश गुरु का कहना था कि सभी मृत वीरों की देह को भी ढंकने के बाद ही इन दोनों को ढंका जाए। चारों पुत्रों की शहादत से अंजान बाद उनकी मां ने उनके विषय में पूछा तो गुरु जी का उत्तर था, ‘इन पुत्रन के कारने वार दिए सुत चार, चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार।’ देश की बलिवेदी पर कुर्बानी का ऐसा उदाहरण इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता।
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