स्वागत 2020 : चहुं ओर आए खुशहाली

Last Updated 01 Jan 2020 04:53:00 AM IST

सन 2020 भारतीय लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था के लिए नई सुबह लेकर आएगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है। उम्मीद के साथ चुनी गई सरकार के फैसले जहां लोगों को बेचैन करते हैं वहीं जनता और विशेषकर युवाओं की ओर से उठने वाली आवाजें आस्त करती हैं।


स्वागत 2020 : चहुं ओर आए खुशहाली

इसलिए यह आशा बनती है कि इन दोनों के बीच सन 2019 में जबरदस्त टकराव की जो स्थिति बन रही थी वह किसी समाधान और समझौते की ओर जाएगी और 2020 टकराव की बजाय सर्वसम्मति से राष्ट्रीय विकास और शांति का वर्ष होगा।
निश्चित तौर पर 2019 ने अपने आखिरी चरण में युवाओं का स्वत:स्फूर्त आंदोलन देखा। उस आंदोलन की तात्कालिक वजहें भले ही फीस वृद्धि, नागरिकता संशोधन अधिनियम का पारित किया जाना और एनआरसी की आहट रही हो, लेकिन उसके पीछे कई गहरे कारण रहे हैं। 45 वर्षो की सबसे भयानक बेरोजगारी, महंगाई, घटती विकास दर और दूसरी ओर अयोध्या का फैसला, कश्मीर में 370 समाप्त किया जाना और तीन तलाक को कानूनी अपराध बनाया जाना; यह सब कई ऐसी स्थितियां और फैसले हैं, जिनसे जनता में बेचैनी होनी स्वाभाविक थी। सरकार ने आरंभिक तौर पर भले ही इन बेचैनियों को बढ़ाने में योगदान दिया हो और उनके कारण देशव्यापी आंदोलन भड़के हों मगर बाद में वह उन्हें शांत करती हुए भी दिख रही है। अगर ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री स्वयं ‘मन की बात’ में यह एलान न करते कि भारतीय युवा अराजकता पसंद नहीं है। इससे पहले रामलीला मैदान की रैली में उन्होंने कहा भी था कि जिस एनआरसी पर इतनी आशंकाएं हैं, उसे उनकी सरकार नहीं लाने जा रही। प्रधानमंत्री ने स्वयं इस बात के नारे भी लगवाए कि अनेकता में एकता, भारत की विशेषता’। हालांकि सरकार के इन दावों में भ्रम की स्थिति है और इसे ‘डबलस्पीक’ के तौर पर भी देखा जा रहा है।

इसके बावजूद जन असंतोष और तेज होते लोकतांत्रिक स्वर को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार आक्रामक पुलिस अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज करने को मजबूर हुई है। सरकार की ओर से उठाए गए इन कदमों से यह दावा भले न किया जा सके कि आने वाले वर्ष में आंदोलन शांत हो जाएंगे पर एक दावा जरूर किया जा सकता है कि सरकार और समाज के बीच सघन दोतरफा संवाद कायम होगा। जिस तरह से देश में विपक्षी दल ही नहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दल भी सरकार से असहमति जताते हुए नागरिकता के सवाल पर मुखर हुए हैं, उससे लगता है कि आंदोलन तेज होने के बाद सरकार को अपना रु ख परिवर्तित करना पड़ेगा। निश्चित तौर पर आने वाला वर्ष भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों और संविधान के बुनियादी ढांचे पर गंभीर बहस खड़ी करेगा पर इससे भयभीत होने की बजाय इसे एक स्वस्थ परंपरा के रूप में ही देखा जाना चाहिए। जब किसी जनतंत्र में विपक्ष काहिल और नाकारा हो जाता है तो जनता को कमान स्वयं अपने हाथ में लेनी पड़ती है। यह स्थिति वर्षो बाद अगले वर्ष के लिए निर्मिंत हो रही है। जनता जब आगे चलेगी तो विपक्ष को मजबूर होकर उसका साथ देना ही पड़ेगा। उससे भी बड़ी बात है कि जिन युवाओं को सोशल मीडिया का गुलाम बताया जा रहा था वे अपने मौलिक अधिकारों और संविधान की रक्षा के लिए खड़े हो रहे हैं।
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है कि वह कट्टरता के मुकाबले उदारता की भावना को जागृत कर रहा है। पश्चिमी देशों की मीडिया ने पिछले साल की स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए यह कहा था कि भारत में लोकतंत्र अपने सबसे निचले स्तर पर चला गया है लेकिन उसी के बाद जैसे हालात बने हैं, उससे लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक आत्मा में हलचल हुई है और वह विकल्प फेंकने की तैयारी कर रही है। भारत में विकल्प फेंकने की अद्भुत क्षमताएं हैं और वह उसने समय-समय पर प्रकट भी किया है। पिछला साल लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता लेकिन जनता के जागृत होने के साथ अगले वर्ष के लिए उसका भविष्य उज्जवल है। जब जनता जागृत होती है तो लोकतंत्र की संस्थाएं सक्रिय होती हैं और कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका और विधायिका के भीतर भी आत्ममंथन होता है। इसलिए जिस न्यायपालिका ने पिछले वर्ष कुछ निराश किया, उससे आने वाले साल में उम्मीद की जानी चाहिए। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कम शुभ नहीं है कि जिन लोगों ने पिछले साल हिंसा की थी या किसी भी तरह से उसके प्रेरक रहे थे वे नये साल के लिए महात्मा गांधी का स्मरण करते हुए संकल्प ले रहे हैं कि अहिंसक आंदोलन ही सफल हो सकता है। यह कम संतोष और खुशी की बात नहीं है कि महात्मा गांधी फिर से पढ़े जा रहे हैं।
उनके तमाम प्रयोगों पर वे लोग भी चर्चा कर रहे हैं, जो उन्हें खारिज करते रहते थे। इसी के साथ बाबा साहेब आंबेडकर को पढ़ने और उनके विचारों पर काम करने की उत्सुकता बढ़ रही है। वह उत्सुकता उन पारंपरिक राजनीतिक दलों से बाहर है, जो उनकी विरासत का दावा कर रहे थे। अच्छी बात यह है कि जो आंदोलन किसी अल्पसंख्यक समुदाय तक सीमित होकर अपने धार्मिंक नारों के कारण सांप्रदायिक रंग ले रहे थे, उनमें बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की भागीदारी के कारण उनका चरित्र बदल रहा है। किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे सुखद बात क्या हो सकती है कि उसके नागरिक संविधान की बात करें और उसके मूल्यों को आज के संदर्भ में लागू करने की कोशिश करें। इसी जागरूकता का सपना देखते हुए पैंतालीस साल पूर्व आपातकाल से ठीक पहले दुष्यंत कुमार ने कहा था कि ‘वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है, माथे पर उसके चोट का गहरा निशान है। सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर, झोले में उसके पास कोई संविधान है। उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप, वो आदमी नया है मगर सावधान है।’ अगले वर्ष के लिए जो सबसे बड़ी उम्मीद बनती है वह अर्थव्यवस्था के लिए।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बैंकरों की बैठक में सीबीआई प्रमुख को बिठाकर आस्त करने की पहल की है। पिछले साल राहुल बजाज ने गृहमंत्री और वित्तमंत्री के समक्ष जो प्रतिरोध जताया था उसे सरकार ने महसूस किया है कि डर के माहौल में उद्यमशीलता पनप नहीं सकती। अगर देश में निवेश को बढ़ाना है और अर्थव्यवस्था को रफ्तार देनी है तो उदारीकरण के मूल को पकड़ना होगा। अगले वर्ष के लिए सबसे अच्छी बात यही है कि राजनीतिक दलों के हाथों में बागडोर सौंप कर सोई हुई जनता जाग रही है और वह अपने समाज और सरकार को बेहतर बनाने के लिए जरूर कुछ अच्छा करेगी इसीलिए नये वर्ष का दिल खोलकर स्वागत होना चाहिए।

अरुण त्रिपाठी


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