मुद्दा : अभिव्यक्ति की आजादी के मायने
जब स्कूल में हम पढ़ते थे तो इंग्लिश की टेक्स्ट बुक में एक चैप्टर पढ़ते थे। उसमें एक घटना का उल्लेख आता है कि एक आदमी सड़क पर छड़ी घुमाते हुए जा रहा है।
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सामने से आ रहा एक दूसरा व्यक्ति उसे ऐसा करने से मना करता है। इस पर छड़ी घुमाने वाला व्यक्ति कहता है कि उसे ऐसा करने की आजादी है। तो दूसरा व्यक्ति कहता है कि आपकी यह आजादी ठीक वहीं खत्म हो जाती है जहां से मेरी नाक शुरू होती है। आपकी ऐसी आजादी से अगर मुझे छड़ी लग गई तो आपकी आजादी वहीं खत्म हो जाती है। दुर्भाग्य से इस समय देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लोग सड़क पर मनमाने तरीके से छड़ी घुमा रहे हैं।
संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ लोग देश विरोधी नारेबाजी, तोड़फोड़, हिंसा, आगजनी और पथराव के अलावा और बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो किसी भी दशा में संविधान के तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है। संविधान में निश्चित रूप से असहमति का अधिकार है, लेकिन इस रूप में नहीं जो आजकल देखने को मिल रहा है। यह अधिकार संविधान के दायरे में ही होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर आपका यह अधिकार अपराध बन जाएगा और संविधान के तहत तय प्रक्रिया के अनुसार आप पर वही कार्रवाई होगी, जो एक अपराध के लिए तय की गई है। ऐसे हालात में सबसे पहले यह समझना होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी क्या है?
और संविधान में मौलिक अधिकार के तहत यह आजादी हमें क्यों दी गई है? संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी देश के नागरिकों को इसलिए दी गई थी ताकि वे सच में अपने आप को आजाद और सुरक्षित महसूस करें मगर इसे बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का कोई गलत इस्तेमाल न करे, इसलिए इस पर संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ शत्रे और बंदिशें भी लगाई गई हैं। यह आजादी उस दशा में सीमित की जा सकती है, जब यह देश की एकता और अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरा हो, कानून-व्यवस्था में खलल डालती हो या कोर्ट की अवमानना तथा किसी व्यक्ति की मानहानि करती हो या मित्र देशों के साथ संबंध खराब कर रही हो। ये बात बिल्कुल सही है कि संविधान हमें मौलिक अधिकार के तहत अभिव्यक्ति की आजादी देता है, असहमति की आजादी देता है। हम अपनी अभिव्यक्ति भाषण, मंचन, फिल्म और कला के जितने भी माध्यम हैं उनके जरिए कर सकते हैं किंतु इनके जरिए हमें किसी का मिथ्या आधार पर चरित्रहनन नहीं कर सकते। ये अधिकार हमें नहीं मिला है। पर आजकल हो यही रहा है। अगर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, ‘भारत मुर्दाबाद’ जैसे देश विरोधी नारे लगाने वाली भीड़ को एक पुलिस अफसर ये कहता है कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए तो क थित धर्मनिरपेक्ष ताकतें और कई सियासी दलों के नेता उस उन्मादी भीड़ की निंदा न करके उस देशभक्त पुलिस अफसर की घेराबंदी करने के लिए लामबंद हो रहे हैं। यह शर्मनाक है। उनका यह व्यवहार बताता है कि राजनीति का स्तर कितना गिर चुका है? इस गिरते स्तर का यह हाल है कि अगर सेना प्रमुख यह कहते हैं कि हिंसा और आगजनी करने वाली भीड़ की अगुआई करना नेतृत्व नहीं है तो कथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले ठेकेदारों के तन-बदन में आग लग जाती है। कोई कहता है कि सेना प्रमुख अपनी सीमा लांघ रहे हैं तो कोई कहता है कि सेना राजनीति कर रही है। इसके अलावा और भी न जाने का क्या-क्या कहा जा रहा है?
क्या संविधान सम्मत बात कहने का अधिकार एक जनरल को नहीं है। क्या ऐसा कहकर उन्होंने किसी की तरफदारी या राजनीति की, कतई नहीं। दूसरी तरफ देश की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह’ के देशद्रोही नारे क्या अभिव्यक्ति की आजादी हैं? इस तरह की अभिव्यक्ति की आजादी पर देश की कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें मौन रहती हैं। भारत-पाक क्रिकेट मैच के दौरान टीवी पर मैच देख रहे मेरठ की एक यूनिवर्सिटी के कुछ छात्र ‘भारत मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हैं। इस अभिव्यक्ति की आजादी पर भी धर्मनिरपेक्षता की मिसाल पार्टियां कुछ नहीं बोलती हैं। हां, अगर किसी शहर में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगा रही उन्मादी भीड़ को अगर एक पुलिस अफसर ये कहे कि अगर उन्हें पाकिस्तान से इतना प्रेम है तो वहीं क्यों नहीं चले जाते तो क्या इससे अभिव्यक्ति की आजादी का हनन हो जाता है? वहीं देशद्रोह के नारे लगाने वाली, शत्रु राष्ट्र का महिमामंडन करने वाली भीड़ क्या अभिव्यक्ति की अजादी का हनन नहीं कर रही? इस मसले पर संजीदा होकर सोचने की महती जरूरत है।
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