बतंगड़ बेतुक : जाते साल के आते बुरे संकेत

Last Updated 29 Dec 2019 12:17:12 AM IST

‘ददाजू, लो एक साल और बीत गया, हम एक साल और बड़े हो गए,’ झल्लन हमारे पास आकर बोला। हमने कहा, ‘तू एक साल बड़ा हो गया, हम एक साल और छोटे हो गए।’


बतंगड़ बेतुक : जाते साल के आते बुरे संकेत

झल्लन ने हमें असमंजस की नजर से देखा और बोला, ‘मजाक कर रहे हैं ददाजू?’ हमने कहा, ‘जितनी लिखा के लाए हैं, उसमें से एक साल और कम हो गया कि नहीं? हम छोटे हो गए कि नहीं?’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, आप कुछ भी हो सकते हैं पर छोटे नहीं हो सकते। वैसे इस साल ने बड़े-बड़ों को छोटा किया है। देश को छोटा किया है, राजनीति को छोटा किया है, लोकतंत्र को छोटा किया है, सच्चाई-ईमानदारी को छोटा किया है और सबसे बढ़कर इंसानियत को छोटा किया है।’
हमने झल्लन की वाक्यावली में निहित दार्शनिकता को समझने की कोशिश की तो लगा, झल्लन सही कह रहा है। यह वह साल है जिसने सार्वजनिक जीवन की सारी नियामक व्यवस्थाओं को छोटा किया है, राज्यपाल-राष्ट्रपति जैसे पदों को छोटा किया है, आपसी समझदारी को छोटा किया है और स्वस्थ लोकतांत्रिक जीवन के हर नैतिक मूल्य को छोटा किया है..। और जब साल अपने अंतिम दिन गिन रहा है, तब लग रहा है जैसे समूचा देश समर्थन और विरोध के दो खेमों में बंट गया है, इस बंटाव के बीच जैसे पारस्परिक संवाद के, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को धैर्य और सहानुभूति से समझने के सारे सूत्र आग के हवाले हो गये हैं। हम अब समझना-समझाना नहीं चाहते बल्कि किसी भी सूरत में, किसी भी तरीके से एक दूसरे से निपट लेना चाहते हैं, एक दूसरे को निपटा देना चाहते हैं।

हमने भारी मन से कहा,‘तू सच कह रहा है, झल्लन, अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिन बहुत डरावने होंगे,भारतीय सामाजिक ताने-बाने के लिए विनाशक होंगे।’
झल्लन के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आयीं,‘ददाजू, सरकार  बार-बार समझा रही है कि किसी भी भारतीय मुसलमान की नागरिकता पर कोई खतरा नहीं है, मगर लोग सरकार के पक्ष को समझ नहीं रहे हैं, लगातार भ्रम के शिकार हो रहे हैं।’ हमने झल्लन की आंखों में आंखें डालते हुए पूछा,‘तुझे सचमुच लगता है कि लोग भ्रम का शिकार हो रहे हैं? देश भर के मुसलमान जिस आक्रामक तरीके के विरोध कर रहे हैं, वह किसी भ्रम का शिकार होकर कर रहे हैं?’ झल्लन ने प्रश्नवाचक दृष्टि से हम पर डाली और अपना सर खुजाते हुए बोला,‘यही तो हम सोच रहे हैं ददाजू, न कोई भ्रम इतना लंबा चलता है न कोई ज्यादा देर तक भ्रम में रहना चाहता है। आखिर चक्कर क्या है?’
हमने कहा, ‘असल में पूरे देश में जो मुस्लिम समूह सरकार को चुनौती दे रहे हैं, वह वस्तुत: इस्लामियत की चुनौती है, हिंदुत्व के विरुद्ध। इसमें कहीं कोई भ्रम नहीं है; क्योंकि सरकार जो देख रही है, वह कह नहीं सकती इसलिए वह बार-बार इसे भ्रम का नाम दे रही है। सरकार जो अपनी सफाई दे रही है, वह तभी दे सकती है, जब वह इसे मुसलमानों का भ्रम माने। आज दो ऐतिहासिक टकराहट वाली ताकतें एक नयी शक्ल में नये बहाने से आमने-सामने हैं। इसलिए सरकार चाहे जितना समझा ले, जितनी सफाई दे ले, विरोध नहीं रुकेगा। इसलिए नहीं रुकेगा कि यह विरोध सरकार की नीति के विरुद्ध न होकर, सरकार के अस्तित्व के विरुद्ध है। झल्लन बोला,‘मगर ददाजू, विरोध तो धर्मनिरपेक्ष ताकतें कर रही हैं जो कह रही हैं कि किसी भी कानून में हिंदू-मुस्लिम भेद नहीं किया जा सकता।’ हमने कहा, ‘तुझे लगता है, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की इस देश में इतनी औकात रह गई है कि वे इतना व्यापक और इतना उग्र विरोध खड़ा कर सकें?’ झल्लन ने तुरंत उत्तर दिया,‘लेकिन ददाजू, सरकार विरोधी बयानों, टीवी बहसों, अखबारों और सोशल मीडिया में तो धर्मनिरपेक्षों ने ही मोर्चा संभाला हुआ है।’ हमने कहा,‘वे यही कर सकते हैं। दरअसल उन्होंने हिंदुत्व विरोधी इस्लामियत की लहर पर सवारी गांठी हुई है। सच्चाई यह है कि वे व्यापक विरोध के बगलबच्चे मात्र हैं।’ झल्लन ने सीधे हमारी ओर देखा और बोला,‘आखिर ये धर्मनिरपेक्षतावादी चाहते क्या हैं, ये हैं क्या?’
हमने कहा,‘इस समय दो तरह के धर्मनिरपेक्षतावादी सक्रिय हैं। एक धूर्त धर्मनिरपेक्षतावादी हैं जो इस्लामियत की चुनौती को अच्छी तरह जान-समझ रहे हैं,लेकिन वे इस परिस्थिति को अपनी राजनीति के लिए भुनाने पर आमादा हैं। दूसरे वे ईमानदार धर्मनिरपेक्षतावादी हैं, जो समाज में सचमुच धार्मिक कट्टरताविहीन वातावरण चाहते हैं। परंतु वे लगातार अपने आपको बेवकूफ बनाने पर तुले हैं। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि इस समय इनके पास जो वैचारिक औजार हैं उनसे न तो वे हिंदुत्व की कट्टरता का मुकाबला कर सकते हैं न इस्लामियत की कट्टरता का। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये दोनों कट्टरताएं उनके ताकतवर रहते हुए मजबूत हुई हैं। जब वे ताकतवर थे, तब इनका कोई उपचार नहीं खोज सके तो अब क्या खोजेंगे।’
पता नहीं झल्लन क्या समझ पा रहा था, मगर यह साल अच्छे संकेत देकर नहीं जा रहा था।

विभांशु दिव्याल


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