नागरिकता कानून : विरोध की आग का सच?

Last Updated 17 Dec 2019 12:42:16 AM IST

नागरिकता कानून के विरुद्ध उठती हिंसा की आग निस्संदेह चिंताजनक है।


नागरिकता कानून : विरोध की आग का सच?

पूर्वोत्तर के लोगों में इसको लेकर आशंकाएं हैं यह तो पहले से स्पष्ट था पर वहां और अन्य जगह इतना उग्र विरोध होगा, हिंसा और आगजनी ऐसी हो जाएगी इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने लोक सभा एवं राज्य सभा दोनों में और प्रधानमंत्री ने आमसभा में सभी प्रकार की आशंकाओं का निवारण करने की कोशिश की थी।
दोनों ने साफ किया था कि यह विधेयक केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धार्मिंक उत्पीड़न के कारण भागकर आए हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता देने के लिए है। इसमें किसी की नागरिकता का निषेध नहीं है। बावजूद इतना हिंसक विरोध बताता है कि इसके विरु द्ध दुष्प्रचार किया गया है। इससे भारत के मुसलमानों का कोई लेना-देना नहीं है। बावजूद उन्हें भड़काकर राजधानी दिल्ली से लेकर अनेक राज्यों में उग्र हिंसक प्रदशर्न कराए जा रहे हैं। हां, पूर्वोत्तर के लोगों की आशंकाएं थीं। पर गृहमंत्री ने बताया कि उन्होंने पूर्वोत्तर के राजनीतिक नेताओं, सांसदों, विधायकों, गैर राजनीतिक संगठनों, एनजीओ, सामाजिक संगठनों, छात्र संगठनों सबसे 150 घंटे से ज्यादा चर्चा कर उनकी आशंकाओं का निवारण किया और उनके सुझाव के अनुसार विधेयक में संशोधन भी किया। बावजूद यदि हिंसा हुई है तो जाहिर है कुछ आशंकाएं कायम हैं तथा इसके पीछे वही तत्व हैं, जो गलतफहमी पैदा कर अस्थिरता उत्पन्न करना चाहते हैं। देश भर में इस कानून को मुसलमानों का खलनायक मानने वाले ध्यान रखें कि सिक्किम को छोड़कर पूर्वोत्तर के ज्यादातर सांसदों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया।

मणिपुर को इनरलाइन परमिट (आईएलपी) के तहत लाने की घोषणा के बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्य अरु णाचल प्रदेश, मिजोरम और मणिपुर पूरी तरह से नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 के दायरे से बाहर हो गए। शेष तीन राज्य-नागालैंड (दीमापुर को छोड़कर जहां आईएलपी लागू नहीं है), मेघालय (शिलांग को छोड़कर) और त्रिपुरा (गैर आदिवासी इलाकों को छोड़कर जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल नहीं हैं) को प्रावधानों से छूट दी गई थी। दीमापुर को भी इसमें शामिल कर दिया गया है। तो फिर विरोध का औचित्य क्या है? बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत सीमाई इलाकों के लिए इनर लाइन ऑफ परमिट (आईएलपी) प्रणाली लागू किया गया था। इसके तहत बाहर के लोगों को (भारतीयों को भी) निश्चित इलाकों में आईएलपी के जरिए ही प्रवेश की अनुमति दी जाती है। बाहरी लोग आईएलपी इलाकों में सीमित समय के लिए रह सकते हैं, लेकिन वहां अचल संपत्ति नहीं खरीद सकते। इस व्यवस्था के कारण ही ज्यादातर राज्यों ने आंदोलन से अपने को अलग कर लिया। त्रिपुरा में भी मामला लगभग शांत हो गया। किंतु असम धू-धू कर जल रहा था। सेना के मोर्चा संभालने से स्थिति सुधरी।
असम की स्थिति को थोड़ा विस्तार से समझना जरूरी है। आदिवासियों के संरक्षण के लिए भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत अधिसूचित इलाकों को भी इसके दायरे से बाहर रखा गया है। असम के आदिवासी इलाकों करबी आंगलोंग, दिमा हासो और बोडोलैंड को छठी अनुसूची के तहत संरक्षित किया गया है। तो स्थानीय संस्कृति, परंपरा तथा स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर अतिक्रमण की आशंकाओं को खत्म करने के ठोस प्रावधान हैं। यह भी समझना जरूरी है कि असम में बराक घाटी के तीन जिलों में 1.5 लाख बंगाली हिन्दू शरणार्थी रहते हैं। घाटी के कछार, करीमगंज और हैलाकांडी जिले में रहने वाले शरणार्थी इस संशोधन से लाभान्वित होने वाले सबसे बड़े समूह होंगे। राजीव गांधी और असम गण परिषद के बीच हुए समझौते के अनुसार  25 मार्च 1971 की समय सीमा लागू होने से ज्यादा लोगों को लाभ होना है। बंगाली बहुल बराक घाटी को छोड़कर असम के शेष सभी हिस्से में यह आशंका पैदा की गई है कि कानून बदलने के बाद बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को नागरिकता मिल जाएगी और तब ये बांग्लादेशी हिन्दू उनके (असम के मूल निवासियों के) हितों को चुनौती देंगे। इन बांग्लादेशी हिन्दुओं के कारण उनकी संस्कृति, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाजों पर असर पड़ेगा। साथ ही राज्य के संसाधनों का बंटवारा भी करना पड़ेगा। यह आशंका बहुत हद तक निराधार है। नये कानून के तहत नागरिकता के लिए भारत में निवास की समय सीमा वर्ष 2014 तय की गई है।
विरोधियों का कहना है कि असम ने 1951 से 1971 तक आए शरणार्थियों का बोझ उठाया,  शरणार्थियों का अब और बोझ नहीं उठा सकता। नागरिकता कानून से असम समझौते के प्रावधानों को ठेस पहुंचेगा। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और छात्र संगठन के बीच असम समझौता हुआ। इसमें 25 मार्च, 1971 के बाद आए विदेशियों की पहचान कर उन्हें देश से निष्काषित करने का वादा किया गया। असम समझौता में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंश (एनआरसी) की बात थी। 35 वर्षो तक एनआरसी पर कोई काम नहीं हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जब एनआरसी की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और 31 अगस्त, 2019 को अंतिम सूची प्रकाशित हुई तो 19 लाख लोग बाहर हो गए। इनमें ज्यादातर हिन्दू हैं। असमी लोगों के अंदर बांग्लाभाषी लोगों को लेकर दुराव की भावना वर्षो से है।
वहां लोगों की भावनाओं को उभारना आसान है। हालांकि असम में ऐसे संगठन और नेता हैं, जो मानते हैं कि शंकाएं सही नहीं है। इनका कहना है कि समझौते का क्लॉज 6 लागू होने से सब ठीक हो जाएगा। असम समझौता के क्लॉज 6 में मूल निवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई पहचान और उनके धरोहरों के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए संवैधानिक, कार्यकारी और प्रशासनिक व्यवस्था की बात है। सरकार आम लोगों के अंदर गलतफहमी दूर करने का प्रयास करे। उन्हें विश्वास में ले। लेकिन जो इसका गलत लाभ उठाने के लिए हिंसा और सांप्रदायिकता फैला रहे हैं, उनकी पहचान कर सख्ती से पेश आने की आवश्यकता है। आखिर कई जगह मुसलमान कह रहे हैं कि मोदी ने मुसलमानों को बाहर निकालने का कानून बनाया है। यह झूठ किसने फैलाया है? इसकी जांच होनी चाहिए।

अवधेश कुमार


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