मीडिया : तालियों का जन-मनोविज्ञान
हर चैनल गुजरात का चुनाव दिखा रहा है. कुछ महत्त्वपूर्ण कंस्टीट्वेंसीज में हर शाम दलों के उम्मीदवारों/प्रतिनिधियों का बुलाई पब्लिक से आमना सामना कराकर वे लाइव कवरेज करते हैं ताकि हमें घर बैठे चुनाव के तापमान पता चल जाए.
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हिन्दी और अंग्रेजी के कई चैनल अपने रिपोर्टर को गुजरात के विभिन्न इलाकों में उतार चुके हैं, और वे हर शाम जनता के मूड को बताते-दिखाते हैं. यह एक प्रकार का वीडियो रिपोर्ताज होता है.
ऐसी पब्लिक मीटिंगों में जो ऑडिएंस (श्रोता और दर्शक) आती है, वह उतनी तटस्थ नहीं होती जितनी कि हमें लगती है. हर कंडीडेट अपने प्रशंसक साथ लाता है. हां, चैनल भी कुछ तटस्थ लोगों को बिठाते हैं ताकि बातचीत में किसी ओर झुकी न लगे.
यद्यपि मीटिंगों में जो सवाल-जवाब होते हैं, वे लगभग पूर्वज्ञात होते हैं, और हर कंडीडेट के समर्थक अपने नेता का भरपूर समर्थन कर ताली बजाया करते हैं, और प्रतिद्वंद्वी की असफलताएं गिना कर उसका उपहास उड़ाते हैं, वोल-सवाल किया करते हैं, फिर भी कुछ तटस्थ व्यक्ति होते हैं, जो इस पक्षधरता से मुक्त वातावरण बना देते हैं.
यहीं कहीं उन तालियों को पढ़ा जाना चाहिए जो अचानक और स्वत:स्फूर्त तरीके से बजने लगती हैं, और आप घर बैठे स्वयं बजाने लगते हैं. ऐसी तालियों के आगे पूर्व नियोजित ‘पक्षधर’ तालियां भी खामोश हो जाती हैं. अभी मोदी का चुनावी दौरा होना है, और अभी उनकी ताली बजवाऊ शैली का आगाज होना है, और तभी जाकर ‘सकल तालीशास्त्र’ के अर्थ खुलेंगे. लेकिन अब तक की ऐसी सभाओं में जिस तरह की ताली बजी हैं, वे भी कुछ नई बातें कहती लगती हैं.
पहली यह कि पहले कांग्रेस और उसके नेता उपहास का विषय बनते थे, अब भाजपा का शासन और नेता उपहास का विषय बनने लगे हैं, और उनको लेकर पड़ने वाली तालियों की संख्या बढ़ती गई है. दूसरी बात यह कि मोदी ने दो हजार चौदह के चुनाव में गुजरात मॉडल को बेचा था, वह मॉडल अब उतना रुतबेदार नहीं नजर आता. आजकल वह भी उपहास का विषय बनने लगा है. उसके उपहास पर ताली बजती है. तीसरी बात यह कि राहुल, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की चौकड़ी पर जब-जब वार करने की कोशिश की गई तब-तब युवाओं की ताली कम ही मिली. सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसी सभाओं में युवा लोग ज्यादा नजर आते हैं.
बुजुर्ग कम नजर आते हैं. ऐसी कई सभाएं भी कवर हुई हैं, जिनमें गुजरात का खाता-पीता वर्ग मोदी की तारीफ करता है, लेकिन ‘जीएसटी’ के कारण अब वह भी ‘किंतु-परंतु’ लगाने लगा है, लेकिन निचला तबका गुजरात की सरकार और मोदी की ‘नोटबंदी’ के खिलाफ दो टूक तरीके से गुस्से में बोलता है, और ताली बजवाता है. यह एकदम नई बात है. यही नहीं, कल तक सबको बोर करने वाले राहुल इन दिनों एक आकषर्क नेता की तरह दिखने लगे हैं. कल तक वे आकोश में जोर-जोर से बेला करते थे, और खुद ही उखड़े नजर आते थे, लेकिन पिछले एक दो महीने से वे मजे-मजे में मजाकिया तरीके से सरकार और मोदी पर कटाक्ष करते हैं. युवा उनको हाथोंहाथ लेते हैं, और जमकर ताली मारते हैं.
पहली बार राहुल ने गुजरात में अपनी नई ‘ऑडिएंस’ यानी श्रोता-दर्शक बनाई है. एक जनसभा में उन्होंने कहा कि भाजपा की सभाओं में आने वालों के चेहरों पर तनाव रहता है, और आप एक दूसरे के चेहरे देखिए, आप लोगों के चेहरे खुश नजर आते हैं. इस बात पर जमकर हल्ला हुआ और तालियां बजीं.
कहने की जरूरत नहीं कि किसी जनसभा में ‘तालियों’ का बजना वक्ता की किसी बात का सीधा और तुरंता अनुमोदन (अप्रवूल) होता है. जब वक्ता और श्रोता एक दूसरे के साथ पूरी तरह भावनात्मक-‘सिंक’ में होते हैं यानि जब वे ‘एक ही भाव में डूबे’ होते हैं, तभी ताली पड़ती है. जब कही गई बात जनता के मर्म को छू जाती है, तब असली ताली पड़ा करती है. यही तालियों का ‘जन-मनोविज्ञान’ है. यह सही है कि आज के वक्त में तालियों को भी मैनेज किया जाता है. वे कब पड़ें, कैसे पड़ें, कितनी देर पड़ें, इसकी ‘पेड प्लानिंग’ की जा सकती है, लेकिन ऐसी प्लानिंग विवेकवान ‘ऑडिएंस’ से छिप नहीं पाती.
असली ताली वह होती है, जो स्वत:स्फूर्त होती है, और वैसी ही दिखती भी है. राहुल की सभाओं में यही दिखता है. यह उनकी पॉपुलरिटी को बताता है. जिसे ताली मिलती है, वह हिट माना जाता है, और शायद इसीलिए भाजपा के नेताओं के चेहरे असामान्य तनाव में नजर आते हैं. अगर चुनाव को पढ़ना है, तो ‘तालियों’ में पढ़ें.
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