प्रसंगवश- भारत : एक भाव यात्रा
भारत को समझने के दावे कई नजरिए से पेश किए जा रहे हैं. उन सबमें अपने-अपने ढंग से देश की छवि गढ़ी जा रही है. इन मार्गों के गंतव्य और उनकी राहें भी भिन्न-भिन्न हैं.
![]() भारत : एक भाव यात्रा |
इनका आधार ज्यादातर ‘विविधता में एकता’ का नारा है. भारत की एकता देश की एक नई सामाजिक प्रॉजेक्ट है, और उसे बनाया जाना है. लेकिन आज एकतावाची सभी चीजों को प्रश्नांकित करते हुए नकारते चलने की प्रवृत्ति तीव्रता से बढ़ी है. इसका एक आशय समाज में समता और समानता की स्वाभाविक अनुपस्थिति की ओर संकेत करना है, और एकता को एक समस्या के रूप में प्रतिपादित करना है. यह भारत की सत्ता या अस्तित्व को देखने का एक पक्ष है, और सिर्फ आंशिक सत्य को ही व्यक्त करता है, जो कई मूलभूत तथ्यों को नजरअंदाज करता है.
भारत के अपने चिंतन की मानें तो सत्य मूलत: एक है. उसकी अभिव्यक्ति अनेक रूपों में दिखती है, (‘एकं सत बहुधा विप्रा: वदन्ति’). ज्यादातर भारतीय चिंतन की परंपराओं में एकता को देखने की प्रवृत्ति प्रबल है. जड़ और चेतन सब में एक तत्व की प्रधानता देखना और पूरी सृष्टि में व्याप्त एक चेतना की उपस्थिति को बार-बार स्वीकार किया गया है. सूक्ष्म और स्थूल के बीच संवाद और कलाओं में समग्रता का आग्रह सहज देखा जा सकता है. विविधता मूल नहीं है पर उसकी अभिव्यक्ति जरूर विविध वर्णो वाली है. तभी तो पृथ्वी को माता और निवासियों को पुत्र कहा कहा गया. व्यष्टि और समष्टि के बीच एक आंतरिक छंद का रिश्ता पहचाना गया. इसी तरह लोकजीवन में सबसे जुड़ने और जोड़ते चलने के अवसर भी बनाए गए जो लोक गीतों, अनुष्ठानों और लोक कलाओं में परिलक्षित होते हैं. इस प्रसंग में यह प्रश्न कि ‘भारत’ के विचार को कहां से शुरू किया जाए महत्त्वपूर्ण हो जाता है.
एक औपचारिक अर्थ में गणराज्य के रूप में कानून की वैधता वाली तिथि मानने पर भारत की स्थापना सिर्फ सत्तर साल पुरानी ही रहेगी और हम अंग्रेजों के उत्तराधिकारी ही बने रहेंगे. तब सवाल उठेगा कि उसके पहले का इतिहास विशेष रूप से जिसे ‘प्राचीन भारत’ कहा जाता है, वह भारत की अवधारणा का वाजिब हिस्सा होगा या नहीं? यहीं की धरती पर, यहीं के लोगों द्वारा जो कुछ किया गया, जो उपलब्धियां हुई उनके साथ हमारा क्या रिश्ता होगा? अतीत के साथ अपने वर्तमान को कैसे जोड़ें यह एक सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा समाज के हित में नहीं है. चूंकि इतिहास हमेशा रचा जाता है, हमें छूट होती है कि हम अपने पसंद से चुन कर उसे गढ़ें.
इतिहास क्रम में बीसवीं सदी के मध्य में जब भारत ने अंग्रेजों से सत्ता पाई तो अपने को परिभाषित करने का एक अवसर भी मिला था. स्वतंत्रता की लड़ाई के प्रतीक बने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ में भारत की एक छवि मिलती है, जिसमें स्वावलंबन और स्वदेशी की प्रवृत्ति वाले एक विकेंद्रीकृत भारत की संकल्पना की गई थी. इस दस्तावेज में ‘सर्व’ की ही प्रमुखता थी, और अंतिम जन की विशेष चिंता थी. आगे चल कर प. दीन दयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा में व्यापक ऐक्य के भाव पर बल दिया गया. भारत देश को प्राचीन काल की निरंतरता में देखें तो हम हजारों साल पुरानी सभ्यता के वारिस बनते हैं, जिसमें एक जीवन दृष्टि है, ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाएं हैं, समृद्ध साहित्य है और परंपराओं की व्यवस्था है, जो किसी के लिए भी ईष्र्या का कारण हो सकती है. लोक-जीवन को गौर से देखें तो भाषा, व्यवहार और आचार-व्यवहार में अनेक परंपराएं अभी भी जीवंत रूप में उपस्थित दिखाई पड़ती हैं. उनके मन में एक भारत भावना के स्तर पर भी जीवित है, जो कुछ मूल्यों और आदशरे के रूप में ही नहीं हैं, बल्कि जिन्हें व्यवहार के स्तर पर जिया जा रहा है. पशु, पक्षी, मनुष्य सभी को जीव मानना, जीवों की रक्षा और भरण-पोषण करना, सृष्टि के विभिन्न तत्वों के बीच परस्पर अवलंबन और पूरकता का अहसास, प्रकृति के साथ नियंत्रण के बदले साझेदारी का रिश्ता, आपस में मिल कर भारत और भारतीयता को परिभाषित करते हैं.
दुर्भाग्यवश जीवन के विभिन्न पक्षों में निरंतरता के बावजूद हम एक खंडित दृष्टि के शिकार होते जा रहे हैं. अब जब सांस्कृतिक विस्मरण का दौर चल पड़ा है, और हम वैश्विक स्तर पर जलवायु और पर्यावरण के संकट से जूझ रहे हैं. भारतीय दृष्टि एक विकल्प के रूप में उपस्थित होती है, जिसमें जीवन की अपरिमित संभावना विद्यमान है. इसकी पुन: पहचान या प्रत्यभिज्ञा जरूरी हो गई है.
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