संसद सत्र : सरकार की बेरुखी क्यों?
सरकार द्वारा देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद की उपेक्षा, उससे मुंह चुराने की या उसका मनमाना इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति हमारे देश में कोई नई बात नहीं है.
संसद सत्र : सरकार की बेरुखी क्यों? |
केंद्र में जिस किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसकी कोशिश संसद का कम से कम सामना करने की ही रही है. लेकिन इस सिलसिले में इस वर्ष अब तक संसद का शीतकालीन सत्र न आयोजित कर मौजूदा भाजपा सरकार ने तो एक नया ही इतिहास रच दिया है. 65 वर्ष के संसदीय इतिहास में पहला मौका है, जब नवम्बर का आधा महीना बीत जाने के बावजूद संसद का शीतकालीन सत्र शुरू नहीं हुआ है, और न ही यह तय हुआ है कि वह कब होगा या होगा ही नहीं.
आम तौर पर संसद का शीतकालीन सत्र हर वर्ष नवम्बर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में आहूत किया जाता है, लेकिन इस वर्ष दूसरा हफ्ता बीत जाने के बावजूद न तो सत्र शुरू हुआ है, और न ही उसके शुरू होने की तारीख का ऐलान. सरकार के रवैये ने विपक्ष को आरोप लगाने का मौका दे दिया कि गुजरात के विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार विपक्ष के सवालों से बचने के लिए इस बार या तो सत्र नहीं बुलाएगी या फिर चुनाव के बाद औपचारिकता भर को बेहद संक्षिप्त सत्र आयोजित करेगी. आरोप निराधार भी नहीं है, क्योंकि नोटबंदी के मुद्दे पर सरकार अपनी ‘उपलब्धियों’ का बखान करने वाले व्यापक प्रचार अभियान और जीएसटी पर कुछ कदम पीछे हटने के बावजूद अभी भी सवालों से घिरी हुई है. नोटबंदी से काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाने, आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर तोड़ देने का सरकारी दावा मजाक बन कर रह गया है.
इन सारे सवालों के अलावा, फ्रांस से रॉफेल विमानों की विवादास्पद खरीद का मामला भी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है. संसद का सत्र बुलाया होता तो विपक्ष इन सवालों पर सरकार से जवाब तलब करता. सरकार के लिए जवाब देना आसान नहीं होता. विपक्ष का आरोप और तमाम सवाल अपनी जगह, मगर हकीकत यही है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव में इस बार भाजपा को कड़ी चुनौती मिल रही है. जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते. इस सिलसिले में चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था के दुरु पयोग का आरोप भी झेल चुके हैं. संसद सत्र के आयोजन को लेकर नियम और परिपाटी की अनदेखी या संसद की अवमानना का आरोप झेलने के लिए भी तत्पर दिखाई दे रहे हैं. खुद भी बार-बार गुजरात जा रहे हैं. उनके ज्यादातर मंत्री और सांसद तो गुजरात में ही डेरा डाले हुए हैं.
जाहिर है कि ऐसे में सरकार संसद का सत्र बुला लेती तो प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्रियों और सांसदों को दिल्ली में ही रहना होता जिससे गुजरात में पार्टी का चुनाव अभियान कमजोर पड़ जाता. सरकार भले ही इस बारे में विपक्ष की ओर से हो रही आलोचना और संसद का सत्र बुलाने की मांग की उपेक्षा कर रही है, मगर विपक्ष इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं. इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रपति से मिलने और सरकार पर दबाव बनाने के लिए संसद परिसर या गांधी समाधि पर सामूहिक धरना देने पर भी विचार कर रहा है. हालांकि इसके आसार कम ही हैं कि इस कवायद का सरकार पर कोई असर होगा. जो भी हो, संसद के प्रति सरकार का रवैया आपातकाल के दौर की याद दिलाता है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए संविधान संशोधन के जरिए लोक सभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा कर संसदीय लोकतंत्र को एक तरह से बंधक बना लिया था.
उस वक्त सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके जेपी ने विपक्षी दलों के सभी लोक सभा सदस्यों से अपील की थी कि सरकार के अलोकतांत्रिक और अनैतिक फैसले पर विरोध दर्ज कराने के लिए लोक सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दें, लेकिन उनकी इस अपील पर सोशलिस्ट पार्टी के दो सांसदों मधु लिमये और शरद यादव के अलावा, किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था. जेपी को अनसुना करने वालों में तत्कालीन जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे. आपातकाल के उस दौर और मौजूदा दौर में मोटा फर्क यही है कि उस वक्त सरकार हर अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक काम संविधान में मनमाना फेरबदल करके और कानूनी उपायों का सहारा लेकर कर रही थी, और मौजूदा सरकार वैसे ही कामों को संविधान, संसद, नियमों और परंपराओं को नजरअंदाज करके.
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