नोटबंदी : आर्थिक लोकतंत्र का आगाज

Last Updated 21 Nov 2017 05:58:47 AM IST

देश आर्थिक लोकतंत्र की अनूठी परंतु चिरप्रतीक्षित यात्रा पर निकल पड़ा है. इसकी शुरुआत आठ नवम्बर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा से हुई.


नोटबंदी : आर्थिक लोकतंत्र का आगाज

वह नोटबंदी का ऐलान था. उसका प्रभाव जहां देश में हुआ. इससे अर्थव्यवस्था में नगदी का चलन कम हुआ. काले धन पर लगाम लगी है. आर्थिक सुधार के लक्षण चौतरफा प्रकट हो रहे हैं.

मोदी से पहले हर प्रधानमंत्री ने काले धन पर चिंता जताई पर धीमी आवाज में. वैसे, काले धन से लड़ने की घोषणा तो सभी करते रहे हैं. समय-समय पर कुछ कदम भी उठाए गए थे. भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या काला धन है. सबसे पहले 1948 में इसे पहचाना गया था. लेकिन इस समस्या का जिक्र राजनीतिक मंच पर पहली बार 1962 में हुआ और उसकी अनुगूंज पूरे देश ने सुनी. जब कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी ने भ्रष्टाचार और काले धन के प्रभाव में आए कांग्रेसियों पर सवाल खड़ा किया.

पं.  नेहरू उस आवाज को अनसुना नहीं कर सके. एक कमेटी बनाई. उसे संथानम कमेटी कहते हैं. तब से दर्जनों कमेटी और कमीशन बन चुके हैं. उनकी रिपोर्ट और सिफारिशें हर सरकार में धूल चाट रही थीं. उनमें ही एक एनएन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट भी है. जो कभी उजागर नहीं हुई. उसने काले धन की तिकड़ी का राज खोला. उम्मीद थी कि केंद्र की सरकार उस रिपोर्ट को आधार बनाकर काले धन के गठजोड़ को तोड़ेगी. वह काम मोदी ने एक झटके में कर दिखाया. दूसरे क्यों नहीं कर सके?

आजादी के बाद से ही अर्थव्यवस्था में काले धन का प्रवेश हो गया था क्योंकि द्वितीय वि युद्ध के कारण कारोबारियों ने लाइसेंस प्रणाली का लाभ उठाकर काली कमाई की थी. 1948 में काले धन का अनुपात तीन फीसद आंका गया था, जो नेहरू के कार्यकाल में बढ़कर सात फीसद हो गया. वांचू कमेटी की रिपोर्ट यही बताती है. इंदिरा गांधी के शासनकाल में नेहरू शासन से तीन गुना ज्यादा बढ़ोतरी हुई. उससे चिंतित जेपी ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा.

जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार आई तो 29 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने एक इंटरव्यू दिया. उसमें केंद्र की मोरारजी देसाई सरकार से अपील की कि ऐसा कदम उठाएं जिससे लोग अनुभव करें कि जनजीवन में सार्थक परिवर्तन होने जा रहा है. मोरारजी देसाई को काली ताकतों ने परास्त कर दिया अन्यथा वे अवश्य कदम उठाते. राजनीतिक नेतृत्व की बहानेबाजी से काले धन का अनुपात बढ़ता गया. इंदिरा गांधी के जमाने में जब उनसे जेपी सख्त कदम उठाने की बात करते थे, तब वे कहा करती थीं कि भ्रष्टाचार और काला धन तो विव्यापी परिघटना है.

प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किसी का लिखा हुआ पढ़ा. वह आज एक मुहावरा बन गया है कि केंद्र से हर रुपये में से गरीबों को 15 पैसा ही मिल पाता है. यह बयान सच होते हुए भी अपनी जिम्मेदारी से भागने का उपाय है. इसी तरह मनमोहन सिंह के कार्यकाल में काले धन का अनुपात बढ़कर 62 फीसद हो गया था. मोदी को 70 साल का कचरा साफ करना है. उन्होंने पाया कि नोटबंदी से एक साथ पांच लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं. भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में इस तरह के कदम का कोई उदाहरण नहीं मिलता. मोदी की घोषणा इसीलिए विशिष्ट हो जाती है.

नोटबंदी से एक ही साथ काले धन, जाली नोट, हवाला कारोबार, आतंकवादियों और माओवादियों के धन के स्रोत पर जहां मारक चोट पहुंची, वहीं डिजिटल भुगतान और साफ-सुथरी अर्थव्यवस्था के लिए बंद दरवाजे खुलने लगे. नोटबंदी से छह लाख करोड़ रुपये के काले धन को समाप्त किया जा सका है. इससे सचमुच पांच सकारात्मक परिणाम आए हैं. एक-बैंकों की कर्ज देने की क्षमता 18 लाख करोड़ रुपये की हो गई है. दो-डिजिटल लेन-देन की संख्या बढ़कर करीब 8 करोड़ हो गई है. तीन-3 लाख करोड़ नए बचत खाते खुले हैं. सोने का आयात बीस फीसद घटा है. म्यूच्यूअल फंड में 1.69 लाख करोड़ रुपये आए हैं जो 17 सौ गुना पहले से ज्यादा हैं. चार-बैंक के कर्ज दरों में दो प्रतिशत की कमी आई है. यह रोजगार को बढ़ाने में सहायक होगा. पांच-वैध अर्थव्यवस्था का दायरा बढ़ा है. नागरिकों में भावना पैदा हुई है कि काले धन वाले दंडित होंगे.

काले धन की अपनी एक प्रणाली है. उसे सिर्फ एक घोषणा से समाप्त नहीं किया जा सकता. इसलिए मोदी सरकार ने नई प्रक्रिया प्रारंभ की है. उससे अर्थव्यवस्था में अस्थायी  अस्थिरता का उत्पन्न होना स्वाभाविक है. अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि यह अल्पकालिक है. दूसरी तरफ काले धन से निपटने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है, उसके तहत ही ब्लैक मनी एंड इंपोजिशन ऑफ टैक्स एक्ट जैसे कानून अपना काम कर रहे हैं. इससे 64,275 व्यक्तियों ने अपने काले धन की जानकारी दी. इससे भारत सरकार को 2,476 करोड़ टैक्स मिला. इस तरह के चार-पांच कदम सरकार ने उठाए हैं. कुछ कानूनों में संशोधन कर इस प्रक्रिया को तेज किया गया है,जिससे बेनामी संपत्ति से भी पैदा काले धन को रोका जा सके. 30 सितम्बर, 2017 तक 1626 करोड़ रुपये मूल्य के 475 मामले पकड़े गए. करीब 18 लाख संदिग्ध बैंक खातों की पहचान की गई है, जिनमें करीब 4 लाख करोड़ रुपये का लेन-देन हुआ है.

राजनीतिक नेतृत्व और राज्य तंत्र की मदद के बिना काले धन की अर्थव्यवस्था काम नहीं कर सकती. विपक्ष भी यह जानता है. इसलिए राहुल गांधी और सोनिया गांधी को खुद से पूछना चाहिए कि काले धन का कंगूरा किसने बढ़ाया? इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने कहा है कि काले धन की अर्थव्यवस्था का साथ नहीं देगा. यह भी बता दिया है कि काले धन में राज्य तंत्र की हिस्सेदारी को भी चलने नहीं देंगे. सवाल है कि विपक्ष इससे क्यों बौखला गया है. एक नागरिक काले धन के खिलाफ मोदी की लड़ाई को अपने हित और देश के हित में समझता है. विपक्ष भी ऐसा सोच सकता है, अगर वह अपने मन को बदले और रचनात्मक राजनीति की राह ले. तभी आर्थिक लोकतंत्र की यात्रा अपनी मंजिल पर जल्दी पहुंच सकेगी. जो बाधा बनेंगे, वे इतिहास के अपराधी माने जाएंगे.

रामबहादुर राय


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