परत-दर-परत : ..क्योंकि समझौते की सूरत नहीं

Last Updated 19 Nov 2017 06:03:08 AM IST

राम जन्मभूमि मंदिर-मस्जिद विवाद में कोई न कोई मोड़ आता रहता है. दोनों पक्षों में समझौता कराने के न जाने कितने प्रयत्न हो चुके हैं बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले और उसके बाद.


..क्योंकि समझौते की सूरत नहीं

कहा जाता है कि कई बार समझौता लगभग हो गया था, पर अंतिम समय में किसी पक्ष ने या दोनों पक्षों ने मना कर दिया. अंतत: परिणाम निकला कि लोग सुप्रीम कोर्ट की ओर उम्मीद से देखने लगे कि अब फैसला वही करेगा. लेकिन कोर्ट में सुनवाई का मामला भी कम पेचीदा नहीं. इसीलिए वह अब तक इसकी सुनवाई शुरू करने से बचता रहा है. लेकिन कोई भी कोर्ट कब तक अपना कर्तव्य टाल सकता है? कोर्ट ने  दोनों पक्षों से कहा है कि बेहतर हो कि वे अदालत के बाहर समझौता कर लें.

सुप्रीम कोर्ट की यह सलाह आये कई महीने हो चुके हैं, लेकिन बातचीत का कोई वास्तविक सिलसिला शुरू नहीं हुआ है. दोनों पक्ष अतीत में दर्जनों बार एक-दूसरे से मिल चुके हैं, लेकिन समझौते की कोई सूरत नहीं निकली. हां, इस बीच दो नये उद्यमी जरूर प्रगट हुए. उनमें से एक है शिया वक्फ बोर्ड. उसका दावा है कि भले ही बाबर शिया था, पर उसका सेनापति मीर बकी, जिसने मस्जिद बनवाई थी, शिया था, इसलिए बाबरी मस्जिद पर शियाओं का हक है. उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के प्रमुख वसीम रिज्वी समाजवादी पार्टी में थे. उसी दौरान उन पर वक्फ की संपत्ति में धांधली के गंभीर आरोप लगे. मामला अदालत तक भी गया. कहा जा रहा है कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद  अपनी सुरक्षा के लिए वे भाजपा के नजदीक आ गए हैं. समझौते के प्रयास में उनके शामिल होने को भाजपा का समर्थन भी मिल रहा है. यह और बात है कि मामले में अभी तक रिज्वी की हैसियत सातवें सवार की हैसियत से आगे नहीं जा पाई है.

दूसरे नये खिलाड़ी हैं श्री श्री रविशंकर. वे हिंदू पक्ष का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं. अयोध्या विवाद में उन्होंने पहले कभी दिलचस्पी नहीं ली थी. लेकिन अचानक अयोध्या विवाद पर समझौता वार्ता में कूद पड़े हैं. लेकिन जो साधु-संन्यासी, महंत अभी तक अयोध्या विवाद में शामिल रहे हैं, उनके बीच रविशंकर की कोई मान्यता नहीं है. जाहिर है, रिज्वी की तरह उनके हस्तक्षेप को भी गंभीरता से नहीं लिया जा सकता.

बाबरी मस्जिद का विध्वंस 6 दिसम्बर, 1992 को हुआ था.  ठीक एक दिन पहले 5 दिसम्बर से सुप्रीम कोर्ट अयोध्या विवाद की सुनवाई शुरू करने जा रहा है. स्पष्ट है कि उसकी यह आशा कि कोर्ट के बाहर कोई समझौता संभव है, विफल सिद्ध हुई है. अब न्यायिक समाधान एकमात्र समाधान है. लेकिन यह दोनों पक्षों को मान्य होगा? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता. मुसलमानों के प्रतिनिधि स्पष्ट कर चुके हैं कि कोर्ट जो भी फैसला देगा, वह उन्हें मान्य होगा. लेकिन विश्व हिन्दू परिषद के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. शुरू से ही उसका पक्ष रहा है कि बाबरी मस्जिद, जिसे वे विवादित ढांचा कहते हैं, जिस जमीन पर थी, वह राम की जन्म स्थल है, इसलिए उस पर एकमात्र हिन्दुओं का ही अधिकार है. अपने दावे के आधार पर ही उन्होंने बाबरी मस्जिद को तोड़ गिराया था.

हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि कोर्ट का फैसला हमें मंजूर होगा. लेकिन संघ परिवार की समस्या ही है कि वह दर्जनों मुंह से बोलता है. उसके आनुषंगिक संगठनों में से एक ने भी नहीं कहा है कि न्यायिक निर्णय उन्हें भी मान्य होगा. भाजपा के किसी भी पदाधिकारी ने भी यह बात नहीं दुहराई है. दरअसल, संघ परिवार को कोर्ट का फैसला मान्य करना होता तो उसके समर्थक बाबरी मस्जिद पर हमला ही नहीं करते. मामला पहले से ही अदालत में था, और वे अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा कर सकते थे. विहिप का कहना है कि यह तथ्य और इतिहास का नहीं, आस्था का मामला है. चूंकि हिंदू मानते हैं कि यह राम का जन्म स्थान है, इसलिए यहां राम मंदिर बनना ही चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद इस तर्क को क्या दुहराया नहीं जाएगा?

मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार विकल्प अब दो ही हैं. एक न्यायिक समाधान का है. लेकिन यह रास्ता कंटीला है. कोर्ट में बहस मंदिर-मस्जिद पर नहीं, इस पर होगी कि विवादित जमीन पर मालिकाना हक किसका है. यहां बाबरी मस्जिद का पक्ष मजबूत दिखाई देता है, तब हिंदूवादियों की ओर से देशव्यापी उपद्रव का नया सिलसिला शुरू हो सकता है. तब हमें बहुसंख्यकवाद का तांडव देखने को मिलेगा. इसलिए दूसरा विकल्प ही व्यावहारिक है कि मुसलमान स्वेच्छा से विवादग्रस्त भूमि हिंदूवादियों को दें. इसे समर्पण या अपमान का मामला न माना जाए. मुसलमान उदारता दिखाएंगे तो उनकी प्रशंसा ही होगी. बेशक, हिंदूवादी इसे उदारता के रूप में नहीं लेंगे. विजय दिवस मनाएंगे, लेकिन मुसलमानों को जहर का घूंट इसलिए निगल लेना चाहिए कि पूरा देश हिंदूवादी नहीं हुआ है. मेरा मानना है कि भारत की व्यापक जनता मुसलमानों की उदारता से बहुत प्रभावित होगी, जिससे राम जन्मभूमि मंदिर अभियान की हवा निकल जाएगी. कभी-कभी झुक जाना भी बुद्धिमानी होती है. इसलिए यह प्रयोग करके देखने में कोई हर्ज नहीं है.

राजकिशोर


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