प्रसंगवश : कब चेतेंगे हम
देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास आसमान में दूर-दूर तक धूल और धुएं के बादल छाये रहे. लोग सांस लेने के लिए छटपटाते रहे.
प्रसंगवश : कब चेतेंगे हम |
जिंदगी की लड़ाई से जूझते रहे. ऐहतियात के तौर पर छोटे बच्चों के स्कूल बंद करने पड़े. लोगों को इंतजार था कि इस बार पटाखों की बिक्री पर कानूनी रोक से दीवाली से होने वाला प्रदूषण कम होगा. थोड़ी-बहुत कमी जरूर हुई पर थोड़े दिनों बाद ही बाद मौसम का मिजाज फिर पुराने ढर्रे पर आ गया. पता चला कि किसान खेतों में अनाज के बचे-खुचे पौधों-पराली-को जला रहे हैं, और यह उसी से उपजे धुएं का असर है. पहले पराली को खेत में ही दबा दिया जाता था, और पानी पड़ने पर वह खाद बन जाती थी. अब फटाफट फसल लेने के चक्कर में फसल काट कर खेत में आग लगा देते हैं. इससे प्रदूषण होता है.
पर्यावरण की इस भयावह होती परिस्थिति के और भी कारण हैं. मोटर-वाहनों से निकलने वाले धूएं की बड़ी भूमिका है. निरंतर फैल रही दिल्ली में आवागमन के लिए सार्वजनिक साधनों की अव्यवस्था से लोग निजी वाहनों का उपयोग करते हैं. फलस्वरूप दिल्ली महानगर में वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ी है. सड़कों पर इनके चलने और खड़े होने के लिए जगह कम पड़ती जा रही है. इस कारण जाम लगता है. इन सबसे खूब धुआं निकलता है. प्रदूषण का दूसरा स्रोत भवनों, सड़कों आदि के सतत निर्माण कार्य से उपजने वाले धूल और गर्द से जुड़ा है. ऊपर से कूड़ा निस्तारण की कोई प्रभावी व्यवस्था भी नहीं बन पाई है. लोग जगह-जगह कूड़ा जला रहे हैं, जिससे प्रदूषण में इजाफा हो रहा है. पर्यावरण में भिनता-घुलता जहर जल, थल और आकाश हर कहीं फैल रहा है. धरती के नीचे का पानी, नदी का जल और वायुमंडल सब प्रदूषित होता जा रहा है.
सभी लोग निरु पाय हो कर सिर्फ प्रकृति की कृपा की प्रतीक्षा करते हैं. इंतजार करते हैं कि वष्रा होगी, ठंड पड़ेगी, पेड़ के पत्ते धुलेंगे, ऑक्सीजन मिलेगी और कुछ राहत भी. स्वास्थ्य के रक्षा-कवच के रूप ‘आरओ’ का पानी पीते हैं, घर में ‘एयर प्यूरीफायर’ लगाते हैं, और भी न जाने क्या-क्या करते हैं सुरक्षित महसूस करने की कोशिश में. पर न तो यह समस्या का समाधान है, न सबके लिए संभव है और न व्यापक रूप से इसे लागू ही किया जा सकता है.
पर्यावरण-प्रदूषण की असह्य और दयनीय होती जा रही परिस्थिति के अनेक कारण हैं. ये कारण कहीं न कहीं हमारे अवांछित आचरण के ही परिणाम हैं. हम थोड़े-थोड़े क्षणिक लाभ के लिए प्रकृति को नष्ट करने और उसके संतुलन को बिगाड़ने का जुगाड़ लगा लेते हैं. हमने पर्यावरण को अपने से अलग मान लिया या खुद को उससे अलग कर लिया. गलतफहमी में मान लिया कि धरती, हवा और पानी तो हमारे लिए हैं ही. बहुतों को यह मुगालता भी बना रहा कि यह सब हमेशा के लिए है. प्रकृति की इस अनमोल सौगात का हमने विना विचारे अंधाधुंध दोहन शुरू किया. परिणाम यह भी हुआ कि गंगा और यमुना जैसी पवित्र प्राचीन और नदियां मैली और जहरीली होती गई. उनके जलस्रोत बंद होते गए. वे सूखती गई. उनके आसपास स्थित नगरों से निकलने वाले हर तरह के कूड़े-कचरे, मल-मूत्र आदि से वे इस तरह पटती चली गई कि मूल नदी का अस्तित्व ही तिरोहित हो चला. गंदे नालों में तब्दील हो चलीं. उनके उद्धार के लिए ‘गंगा सफाई अभियान’ जैसे भारी-भरकम प्रयास की जरूरत पड़ रही है, जिसके लिए हजारों करोड़ खर्च किए जा रहे हैं.
अक्सर जब कोई समस्या उठती है, तो उसका हल ढूंढ़ने के बदले उसकी तार्किक और राजनीति की दृष्टि से व्याख्या शुरू हो जाती है. तकरे और कुतकरे के सहारे एक आख्यान बुना जाता है कि किस तरह जो है, वह वर्तमान नहीं, बल्कि इतिहास की गलतियों का परिणाम है. राजनेताओं की दृष्टि अपने को छोड़ दूसरे को दोषी ठहराने पर ही टिकी रहती है. समस्या अपना जीवन जीती है (या मर जाती है). गौरतलब है कि दिल्ली में आप पार्टी की सरकार ने दिल्ली को स्मार्ट सिटी बनाने की सोची थी. पर्यावरण प्रदूषण के पिछले अनुभव थे पर इस साल भी परिस्थितियां पूर्ववत रहीं. दिन-प्रतिदिन यहां की आबोहवा बद से बदतर ही होती गई. यह भी पता चला कि पर्यावरण को सुरक्षित-संरक्षित करने के लिए जो धन एकत्र हुआ था, उसका उपयोग ही नहीं हुआ. पर्यावरण के प्रति गैर-जिम्मेदाराना रवैया बेहद खतरनाक है. जनहित में तो कदापि नहीं. पर्यावरण और प्रकृति की अपनी सीमाएं-शत्रे होती हैं, जिनकी परिधि में ही जिया जा सकता है. उनका आदर करना होगा. पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी.
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