इतिहास : जलियांवाला बाग की याद

Last Updated 13 Apr 2017 01:48:25 AM IST

भारत की आजादी के आंदोलन में जिस घटना ने देशवासियों पर सबसे ज्यादा असर डाला, वह है जलियांवाला बाग का सामूहिक हत्याकांड.


इतिहास : जलियांवाला बाग की याद

इस हत्याकांड ने हमारे देश के इतिहास की पूरी धारा को ही बदल के रख दिया. साल 1919 में 13 अप्रैल के दिन, जब पूरा पंजाब बैसाखी मना रहा था, ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों को चारों तरफ से घेरकर बंदूकों की गोलियों से मार डाला था. इस हत्याकांड में महिलाओं और बच्चों समेत सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों लोग घायल हो गए. इस हत्याकांड के पीछे ब्रिटिश सरकार का काला कानून रौलेट एक्ट था, जिसका उस वक्त पूरे देश में जबर्दस्त विरोध हो रहा था. यह कानून आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे. जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकती थी, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकती थी.

इस जनविरोधी कानून के विरोध में पूरा भारत एक साथ उठ खड़ा हुआ और प्रतिकारस्वरूप लोगों ने जगह-जगह सरकार को अपनी गिरफ्तारियां दीं. ब्रिटिश राज ने दमन का रास्ता अपनाया. कानून के खिलाफ खास तौर से पंजाब में बहुत गुस्सा था. वजह, पंजाब के दो लोकप्रिय लीडर डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर ने बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर लिया था. इसके विरोध में जनता ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला. पुलिस ने जुलूस को आगे बढ़ने से रोका और रोकने में कामयाब न होने पर आगे बढ़ रही भीड़ पर गोलियां चला दीं, जिसके परिणामस्वरूप दो लोग मारे गये.

 इस गिरफ्तारी की निंदा करने और पहले हुए गोलीकांड की भर्त्सना करने के लिए 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन शाम को करीब साढ़े चार बजे अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन हुआ. सभा में डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू एवं सत्यपाल की रिहाई एवं रौलट एक्ट के विरोध में नेताओं के वक्तव्य हो रहे थे. जैसे ही अंग्रेज हुकूमत को यह खबर मिली कि 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन आंदोलनकारी जलियांवाला बाग में जमा हो रहे हैं, तो प्रशासन ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली. हालांकि शहर में कफ्र्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो आसपास के इलाकों से बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे. सभा के शुरू होने तक वहां 10-15 हजार लोग जमा हो गए थे. तभी इस बाग के एकमात्र रास्ते से डायर ने अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ वहां पोजिशन ले ली और बिना किसी चेतावनी के गोलीबारी शुरू कर दी. जलियांवाला बाग में जमा हजारों लोगों की भीड़ पर कुल 1,650 राउंड गोलियां चलाई गईं, जिसमें सैंकड़ों अहिंसक सत्याग्रही शहीद हो गए और हजारों घायल हुए. घबराहट में कई लोग बाग में बने कुंए में कूद पड़े. कुछ ही देर में जलियांवाला बाग में बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों समेत सैकड़ों लोगों की लाशों का ढेर लग गया. अनधिकृत आंकड़े के मुताबिक यहां एक हजार से भी ज्यादा लोग मारे गए.

इस बर्बर हत्याकांड के बाद भी देावासियों के आजादी के जज्बे पर कोई खास असर नहीं पड़ा. हजारों हिंदोस्तानियों ने जलियांवाला बाग की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आजाद कराने की कसम खाई. इस घटना से पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया और इसी नरसंहार की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप गांधी जी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया. जलियांवाला बाग में हत्याकांड में घायल हुए ऊधमसिंह ने कसम खाई कि वह इसका बदला अंग्रेजों से जरूर लेंगे. उन्होंने अपनी यह कसम इक्कीस साल बाद पूरी की. 13 मार्च, 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में डायर को पिस्तौल की गोलियों से भून डाला. जलियांवाला हत्याकांड का, देश के एक और बड़े क्रांतिकारी भगतसिंह के मन पर भी काफी असर पड़ा. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 12 साल थी. इस घटना की खबर मिलते ही भगतसिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जालियांवाला बाग पहुंच गए और उन्होंने भी बाग की मिट्टी उठाकर यह कौल उठाया कि देा की आजादी के लिए वे अपना सब कुछ कुर्बान कर देंगे.

जाहिद खान
लेखक


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