विश्लेषण : जम्मू-कश्मीर में अर्थ-अनर्थ
अचरज की बात नहीं है कि चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर की अनंतनाग लोकसभाई सीट का 12 अप्रैल के लिए प्रस्तावित उप-चुनाव मई के आखिर तक के लिए टाल दिया है.
विश्लेषण : जम्मू-कश्मीर में अर्थ-अनर्थ |
जाहिर है कि उप-चुनावों की इसी श्रृंखला की कड़ी के तौर पर 9 अप्रैल को हुए श्रीनगर लोकसभाई क्षेत्र के उप-चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा तथा उसमें 8 लोगों की मौत और उससे भी बढ़कर इस चुनाव में कुल 7.14 फीसद वोट पड़ने की पृष्ठभूमि में ही आयोग का यह फैसला आया है. इसका नतीजा, इस समय पर कश्मीर में उप-चुनाव कराने की चुनाव आयोग की समझदारी पर ही खुद गृह मंत्रालय द्वारा खुलेआम सवाल उठाए जाने के रूप में सामने आया है.
गृह मंत्रालय ने लगभग प्रत्यक्ष रूप से देश को बताना जरूरी समझा है कि आयोग ने न सिर्फ उससे मशविरा किए बिना उप-चुनाव की तारीखें तय कर दी थीं बल्कि इनके ऐलान के फौरन बाद मार्च के मध्य में गृह मंत्रालय द्वारा एक पत्र के जरिए यह समय चुनाव के लिए उपयुक्त न होने के संबंध में आगाह किए जाने के बावजूद आयोग अपने फैसले पर अड़ा रहा था. कहा जा रहा है कि गृह मंत्रालय ने अगले एक-दो महीने में होने जा रहे पंचायत चुनाव के बाद ही उप-चुनाव कराए जाने की सलाह दी थी. उधर, आयोग का अपने बचाव में कहना है कि पंचायत चुनाव हो सकते थे, तो लोक सभा उप-चुनाव क्यों नहीं, जबकि श्रीनगर में उप-चुनाव टाला नहीं जा सकता था.
बहरहाल, श्रीनगर उप-चुनाव का असली संदेश किसी से भी छुपा नहीं रह गया है. वास्तव में आयोग और गृह मंत्रालय की आपसी खींचतान भी जम्मू-कश्मीर के हालात को लेकर केंद्र सरकार के रुख की एक गहरी विडंबना को ही दिखाती है. एक ओर तो केंद्र सरकार, पिछले साल के उत्तरार्ध में बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद भड़के लगातार विरोध प्रदर्शनों के महीनों लंबे सिलसिले में, कड़ाके की सर्दियों में आई कमी के बाद राज्य में सब कुछ सामान्य होने का दिखावा बनाए रखना चाहती थी. केंद्र सरकार की ‘सख्ती’ की नीति को सही साबित करने के अलावा राज्य में कायम पीडीपी-भाजपा गठजोड़ की सरकार को वैधता देने के लिए भी यह दिखावा जरूरी था. और दूसरी ओर, उसी सरकार के गृह मंत्रालय को बखूबी पता था कि हालात सामान्य से ठीक उल्टे हैं. वह चाहता था कि आयोग भी इस सचाई को ध्यान में रखकर चले, जबकि आयोग सब सामान्य होने की उसी सरकार की औपचारिक मुद्रा को ही सचाई मानकर चल रहा था. अंतत: दिखावे और सचाई की टक्कर में सचाई सामने आ ही गई.
यह सचाई है कश्मीर की जनता के अलगाव के पहलू से हालात के पूरे तीन दशक पीछे धकेल दिए जाने की. याद रहे कि इससे पहले 1989 के ही संसदीय चुनाव में कश्मीर में इस तरह मत फीसद देखने को मिला था. उस चुनाव में बारामूला तथा अनंतनाग लोक सभा सीटों पर तो वास्तव में श्रीनगर के ताजातरीन उप-चुनाव से भी कम करीब 5.7 फीसद वोट ही पड़ा था. यही वह दौर है जब कश्मीर की समस्या ने वाकई विकराल रूप लेना शुरू किया था. बेशक, श्रीनगर उप-चुनाव में 7 फीसद मतदान का आंकड़ा, अलगाववादियों के चुनाव के बहिष्कार के आह्वान, बड़े पैमाने पर मतदान केंद्रों पर हमलों व चुनाव रोकने की कोशिशों और हिंसा की पृष्ठभूमि में आया है. लेकिन, सभी जानते हैं कि अलगाववादी करीब तीन दशक से हर चुनाव के ही बहिष्कार का आह्वान करते आए हैं. वास्तव में चुनाव में अलगाववादियों का आह्वान असरदार साबित हुआ है और मतदान रुकवाने के लिए भारी भीड़ के पहुंचने और हमलों आदि से जाहिर हुआ है, और यह शासन और चुनावी प्रक्रिया से कश्मीरी अवाम के गहरे अलगाव को ही दिखाता है.
2014 के अंत में हुए जम्मू-कश्मीर के चुनाव के बाद, जब ‘उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों’ को जोड़ते हुए पीडीपी-भाजपा की सरकार बनी थी, तभी साफ था कि यह अवसरवादी गठजोड़ न तो केंद्र से इस राज्य के लिए ‘बेहतर डील’ हासिल कर सकता है और न ही हिंदू जम्मू और मुस्लिम कश्मीर के बीच बढ़ती खाई को पाटने में कोई मदद कर सकता है. उल्टे, सांप्रदायिकताओं का यह मिलन राज्य की जनता के बीच बढ़ती खाई को और पुख्ता करने का ही काम करेगा. पीडीपी सरकार की राज्य में सभी हितधारकों को समेटते हुए एक सार्थक राजनीतिक संवाद शुरू कराने की जो मूल प्रतिज्ञा थी, मोदी सरकार अपने ही विचारधारात्मक आग्रहों के चलते, उसमें रत्ती भर मददगार नहीं हुई है.
यहां तक कि पिछले साल के आखिर में, मुसलसल जन-विरोध प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में, राज्य का दौरा करने वाली सर्वदलीय संसदीय टीम की सिफारिशों के बाद खुद गृह मंत्री द्वारा संसद के मंच पर सभी हितधारकों से व्यापक राजनीतिक संवाद शुरू किए जाने का दो-टूक वादा करने के बावजूद मोदी सरकार को इस दिशा में एक छोटा-सा कदम उठाना भी मंजूर नहीं हुआ है. उल्टे, जम्मू में अपनी पार्टी तथा संघ परिवार के आधार को मजबूत करने की कोशिश में केंद्र ने घाटी में जन-विरोध कार्रवाइयों से ‘सख्ती’ से निपटने का स्पष्ट संदेश देना जरूरी समझा. सबूत पैलेट गनों के विकल्प आजमाने के अपने वादों से पलटते हुए मोदी सरकार का सुप्रीम कोर्ट के सामने पैलेट गनों के उपयोग की अनिवार्यता की वकालत करना है.
‘सख्ती’ का इससे भी कड़ा संदेश पाकिस्तान के साथ बातचीत तथा संबंधों के मामले में दिया जा रहा है. ये संदेश कश्मीरी जनता के अलगाव को कम करने के बजाय बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं. पीडीपी के साथ सरकार में होने के बावजूद भाजपा और संघ परिवार द्वारा कभी गोमांस तो कभी शरणार्थियों और कभी राष्ट्र ध्वज तो कभी राष्ट्रगान के नाम पर राष्ट्रवाद के इम्तिहानों के नाम पर जम्मू में तथा राज्य में अन्यत्र तथा देश भर में दूसरी जगहों पर भी की जा रही सांप्रदायिक उछल-कूद ने हिंदू जम्मू और मुस्लिम कश्मीर की दूरी को और बढ़ाने का ही काम किया है. इसी सब ने कश्मीर में हालात को तीन दशक पीछे पहुंचा दिया लगता है. सवाल यह है कि केंद्र और जम्मू-कश्मीर की सरकारें 7 के अपने इस परीक्षाफल से क्या कुछ भी नहीं सीखेंगी?
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