मुद्दा : पानी के नये विकल्प
चढ़ते पारे और सूखती धरती की खबरों-तस्वीरों को देख-सुनकर देश में यह चिंता दिखने लगी है कि कहीं इस साल भी पानी हमें खून के आंसू न रु ला दे.
मुद्दा : पानी के नये विकल्प |
इस चिंता की मुख्य वजह पिछले साल का वह अनुभव है, जब देश के 13 राज्य पानी के अकाल के कारण सूखाग्रस्त घोषित कर दिए गए थे और थर्मल पावर प्लांटों, लोहा-इस्पात इंडस्ट्री, कृषि-आधारित फूड और बीवरेज इंडस्ट्री, टेक्सटाइल से लेकर पल्प और पेपर इंडस्ट्री का उत्पादन क्षमता से कम रह गया था.
पिछले साल एक आकलन नीति आयोग ने पेश किया था. इसके अनुसार दुनिया के मुकाबले भारत की आबादी 17 प्रतिशत है, लेकिन इसी तुलना में साफ पानी सिर्फ 4 फीसद उपलब्ध है. समस्या तब और बढ़ जाती है, जब इस उपलब्ध जल का असमान वितरण होता है. आकलन में कहा गया है कि भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति 1700 से 1000 क्यूबिक मीटर जल उपलब्ध है. वैश्विक पैमानों पर देखें तो यदि प्रति व्यक्ति 1554 क्यूबिक मीटर जल ही उपलब्ध है, तो यह पानी के भीषण संकट का संकेत है. इस तरह से भारत एक गंभीर जल संकट वाला देश है क्योंकि यहां जल उपलब्धता इससे भी नीचे है.
ऐसे में सवाल है कि अब और पानी कहां से आएगा. इसके लिए पिछले कुछ समय से जो समाधान सुझाए जा रहे हैं, उनमें से एक है कि हिमालय के ग्लेशियरों से पाइप-लाइनें बिछाई जाएं जो उत्तर भारत को पानी सप्लाई करें. हालांकि पर्यावरणविद् ऐसी तकनीक के विरोधी हैं. उनका तर्क है कि बर्फबारी में साल-दर-साल कमी आने के कारण ग्लेशियरों से गंगा-यमुना नदियों को भी पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है. एक अन्य विकल्प तीन तरफ से समुद्र से घिरे देश के लिए एक बड़ा समाधान सागरों का पानी हो सकता है बशर्ते उसके खारेपन को अलग किया जा सके. तो अगली कई सदियों तक इंसानों की पानी की जरूरत आसानी से पूरी की जा सकती है.
पर समुद्री जल से नमक को छान लेना कभी आसान नहीं रहा. वैसे तो 19वीं सदी के आखिर में यमन और सूडान आदि मुल्कों में समुद्री जल को पेयजल में बदलने का काम शुरू हो गया था पर आज जबकि दुनिया में डिसैलिनेशन (समुद्री जल को पीने के पानी में बदलने की प्रक्रिया यानी रिवर्स ऑस्मोसिस) के 15,988 प्लांट कायम हैं, तो भी इनसे इस्तेमाल योग्य पानी की ग्लोबल जरूरत का सिर्फ 0.5 फीसदी ही उत्पादित किया जा पा रहा है. इंटरनेशनल डिसैलिनेशन एसोसिएशन के मुताबिक दुनिया भर में प्रतिदिन 66.5 मिलियन क्यूबिक पानी डिसैलिनेशन के जरिये साफ किया जा रहा है, जिससे 300 मिलियन लोगों को पेयजल की आपूर्ति हो रही है.
समुद्र के खारे जल को मीठे पानी में बदलने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है. नमक छान कर समुद्री जल को मीठे पानी बनाने में फिलहाल थर्मल डिसैलिनेशन तकनीक को काम में लाया जा रहा है, पर रिवर्स ऑस्मोसिस के इस काम की लागत काफी ज्यादा है. डिसैलिनेशन की प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च होती है, जो उससे मिलने वाले पानी को बेहद महंगा बना देता है. हालांकि ऑस्ट्रेलिया जैसे देश मुख्यत: इसी प्रक्रिया पर निर्भर हैं क्योंकि उनके अन्य जल स्त्रोतों से जरूरत के मुताबिक पानी नहीं मिल पाता. फिलहाल, भारत जैसे देश में इस तरह डिसैलिनेशन से मिलने वाले पानी की मौजूदा कीमत 50-55 रुपये प्रति लीटर बैठती है, जो बोतलबंद पानी से कई गुना ज्यादा है.
लेकिन डिसैलिनेशन की लागत को कम करना होगा क्योंकि आखिर में हमारे पास समुद्र ही होंगे जहां पानी होगा. निश्चय ही भविष्य की जरूरतों के लिहाज से इन प्रयोगों को अमल में लाते वक्त हमें बाकी दुनिया के अनुभवों पर गौर करना चाहिए. डिसैलिनेशन की इन योजनाओं को लेकर सबसे बड़ा ऐतराज आर्थिक है पर रिवर्स ऑस्मोसिस यानी नमक छान कर मीठा पानी बनाने की लागत हर साल घट रही है, लेकिन अब भी यह मौजूदा वाटर सप्लाई से काफी महंगी है.
इस बारे में र्वल्ड बैंक का कहना है कि चेन्नै को जो पानी कृष्णा बेसिन से दो रु पये लीटर में मिल सकता है, वह डिसैलिनेशन से 55 रुपये में मिलेगा. दूसरा ऐतराज पर्यावरणीय है. समुद्रों में जिन किनारों पर डिसैलिनेशन प्लांट लगाए जाएंगे, वे पानी छानने की प्रक्रिया में समुद्री जीवों पर कहर बरपा सकते हैं. इससे पर्यावरणवादी संस्थाएं डिसैलिनेशन की प्रक्रिया का विरोध कर सकती हैं. इसलिए इस बारे में कोई बड़ी योजना बनाने से पहले इसके नकारात्मक पहलुओं पर भी विचार करना होगा.
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