नजरिया : खजाने का ख्याल उतना ही जरूरी

Last Updated 09 Apr 2017 05:37:13 AM IST

आयकर विभाग का मुख्य स्लोगन ‘कोष मूलो दंड’, आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लिए गए हैं.


नजरिया : खजाने का ख्याल उतना ही जरूरी

इसका मतलब है-राजस्व प्रशासन का मुख्य आधार. इसीको किसी दूसरे विद्वान ने कहा था,‘राजनीति, अर्थनीति की चेरी होती है.’ योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जब कैबिनेट की पहली बैठक की तो उन्होंने किसानों की कर्जमाफी की घोषणा सबसे पहले की. हालांकि ऐसा करने वाले देश-प्रदेश की सरकारों के वे पहले मुखिया नहीं थे. खुद उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने भी कर्ज माफी दी थी.

दरअसल, लोक-लुभावन राजनीतिक वादों के बाद जब कोई सरकार बनती है तो उसके मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के माथे पर तब बहुत बल पड़ता है, जब उन्हें कर्ज माफी का फैसला लेना पड़ता है. खासतौर से तब जब उनको यह पता चलता है कि पिछली सरकार खजाना खाली करके जा चुकी है. लेकिन सिर्फ  राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए जनता की भावनाओं और उनकी उम्मीदों को परवान चढ़ाना कहां तक जायज है! और ऐसे हालात में जब केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सिस्टम से लड़ने के लिए पूरी तरह से मोर्चा खोल रखा हो. टैक्स वसूली के लिए दिन-रात काम किया जा रहा हो. ऐसे में सरकारी खजाने और बैंकों पर भारी-भरकम बोझ लादना कहां तक जायज है! अगर तमाम चुनावी वादे पूरे कर दिये जाएं तो सारी अर्थव्यवस्था ही भयंकर घाटे में चली जाएगी.

इस साल डायरेक्ट या इनडायरेक्ट टैक्स कलेक्शन में 18 फीसद का उछाल देखा गया है. डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन 8 लाख 47 हजार करोड़ रु पया हुआ है, वहीं इनडायरेक्ट टैक्स कलेक्शन 7 लाख करोड़ तक जा पहुंचा है. दूसरी तरफ, अगर लिए गए कर्ज को देखें तो स्थिति काफी भयावह दिखती है. साल 2004-2014 के बीच सभी सरकारी, गैर सरकारी एवं वित्तीय संस्थानों ने मिलाकर करीब 63 लाख करोड़ रुपये यानी 690 बिलियन डॉलर का लोन बांटा है. पूरे विश्व में कुल 18 देश ही ऐसे हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था 690 बिलियन डॉलर से अधिक है यानी दुनिया के लगभग दो सौ देशों में किसी की भी अर्थव्यवस्था की हालत या हैसियत इतनी बड़ी नहीं है, जितनी की रकम भारतीय बैंकों या वित्तीय संस्थानों ने 10 सालों में कर्ज में बांट दी है. हां, इससे यह तो पता चलता है कि भारत दुनिया की एक बड़ी अर्थव्यवस्था का हिस्सा है.

लेकिन दूसरी तरफ इतनी बड़ी इकनोमी को बड़ा बनाए रखने के लिए एक बड़े वित्तीय अनुशासन में भी चलना होता है. इसकी देश में कमी है. आरबीआई की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 6 लाख करोड़ रु पये से ज्यादा की संपत्ति एनपीए (नन परफॉर्मिंग एसेट्स) में बदल हो चुकी है. यह रकम काफी बड़ी है. जब किसी बैंक का एनपीए 3 तीन फीसद तक पहुंचता है तो अर्थव्यवस्था में खतरे की घंटी बजने लगती है. लेकिन कुछ बैंकों का एनपीए तो 18 फीसद तक जा पहुंचा है. बैंकों के अंदर तरलता बनी रहे इसके लिए सरकार ने बजट में करीब 25 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया था, जिससे कि हर बैंकों को कुछ मिनिमम कैपिटल सरकार की तरफ से दिया जा सके. इसके बावजूद कुछ बैंकों के हालात बेहद नाजुक बने हुए हैं. किंगफिशर एयरलाइंस को दिए गए कर्ज को लेकर जिस तरह से आईडीबीआई बैंक के पूर्व चेयरमैन समेत आधा दर्जन अधिकारियों की गिरफ्तारी हुई, उससे सरकारी बैंकों में अलग तरह का भय व्याप्त है.

विमुद्रीकरण के दौरान सरकार के पास 15 लाख करोड़ रु पये से ज्यादा धन जमा हुआ. लेकिन तीन माह के भीतर करीब 9 लाख करोड़ रु. से ज्यादा की नई करेंसी बाजार में आ गई. विमुद्रीकरण के दौरान उम्मीद थी कि अगले कुछ ही महीनों में ब्याज दरों में भारी कटौती होगी और नौकरी पेशा लोगों को आसान दरों पर कर्ज लेना संभव हो सकेगा. लेकिन बहुत आजमाइश के बाद भारत सरकार ने कम आय वर्ग या गरीब लोगों के लिए अपने बजट में तीन से चार फीसद तक सब्सिडी देने की घोषणा की, जिसमें 9 से 12 लाख के घर खरीदने पर 4 फीसद तक की छूट और 12 से 18 लाख के मकान खरीदने पर तीन फीसद की छूट शामिल है. हालांकि जबसे जन-धन योजना समेत तमाम योजनाओं में गरीब वर्ग के खातों में पैसे सीधे पहुंचने लगे हैं, उनके मन में सरकार के प्रति भरोसा बहुत बढ़ा है. लेकिन अब भी जितना पैसा उप्र, बिहार जैसे राज्यों से सरकारी-गैरसरकारी बैंकों में जमा होता है, उनका बहुत छोटा हिस्सा ही उन राज्यों में खर्च होता है. बाकी सारा पैसा देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों को कर्ज देने में लगा दिया जाता है. आरबीआई के मुताबिक जिस राज्य से जितना पैसा बैंकों में जमा होता है, उसका बड़ा हिस्सा उसी राज्य को कर्ज के मद में सहयोग देने के लिए खर्च होना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि मैं किसानों की कर्जमाफी के खिलाफ हूं, लेकिन मेरी नजर में इसके बजाय उन्हें बेहतर संसाधन, बेहतर तकनीक, बेहतर शिक्षा और उनसे बेहतर कम्युनिकेशन मुहैया करने की जरूरत है. सरकारी योजनाओं को और पारदर्शी तरीके से उन तक पहुंचाने की जरूरत है. कृषि मंत्रालय का बजट 70 हजार करोड़ रु पये से ज्यादा का है, लेकिन इसमें से कितना पैसा किसानों तक पहुंचता है, यह अभी भी बड़ा प्रश्न है. 125 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले अपने देश में युवाओं की फीसद दुनिया भर से ज्यादा है. फिर भी बेरोजगारी अपने चरम पर है और अशिक्षा का भयंकर बोलबाला है. शासन और सत्ता का प्रभाव प्रदेश की राजधानियों और कुछ गिने-चुने शहरों तक ही सीमित है. इनको ठीक करने की जरूरत है. अब इन समस्याओं से प्रधानमंत्री मोदी जिस संकल्पशीलता, दूरदर्शिता, कुशलता और सख्ती से जूझ रहे हैं, वैसी सामथ्र्य हर मुख्यमंत्री या चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भी दिखाना चाहिए. पर ये सारा कुछ प्रधानमंत्री मोदी में तो दिख रहा है, लेकिन उनके बाद एक बड़ा शून्य पसरा हुआ है.

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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