मीडिया : दुष्ट समाजों के खेल
अलवर की एक सड़क पर घटते जिन दृश्यों को हमने अपने खबर चैनलों पर देखा वे सरल ‘दृश्य’ नहीं हैं, बल्कि ‘हाइपर दृश्य’ हैं, बेहद चंचलित दृश्य हैं, और जिनका वीडियो सजगता से ‘बनाया गया’ लगता है.
मीडिया : दुष्ट समाजों के खेल |
उनको ‘ताकत’ ने बनाया है. हिंसक विचारों ने बनाया है. वह एक ‘दुष्ट कथा’ कहते हैं. मीडिया ने इस वीडियो को बार-बार दिखाया. उसका वांछित असर हुआ. दर्शक दृश्य को देखकर डरे गए : अपने पैसे से एक विक्रेता से गाय (मय रसीद) खरीद कर ट्रक में ले जाते एक वृद्ध को पहले कहा गया कि दौड़े. तब वह दौड़ता है तो उसे दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जाता है. इतना कि वह अस्पताल में दम तोड़ देता है. मृतक समेत उसके कई साथियों पर ‘गो तस्करी’ का केस हो जाता है, और उनको पीटने वालों पर हत्या का केस. कानून ने अपना काम किया. अच्छी बात है.
लेकिन कानून को तो अपना काम करना ही होता है. इसलिए उक्त किस्से को यहीं छोड़िए और इस बात से तसल्ली करिए कि इस घटना को सब कंडम कर रहे हैं. लेकिन इस बार इस कंडम करने में भी एक संतुलन काम करता रहा : एक ही सांस में हिंसा कंडम की गई तो दूसरी में मारे-पीटे गए गो तस्करों की भी खबर ली गई. पहलू खान के दम तोड़ने पर हत्या का केस भी दर्ज हुआ. इस तरह कानून ने अपना काम किया. ठीक बात है.
हम इसके विवरण में अधिक नहीं जाते क्योंकि कुछ ऐसे ही सीन दादरी के अखलाक के संदर्भ में बने थे. उधर भी कुछ ‘स्वयंभू गो रक्षक’ थे. उन्होंने गो की रक्षा में कुछ-कुछ ऐसा ही एक्शन किया था जैसा अलवर में नजर आया. लेकिन उसका वीडियो इस कदर लोमहषर्क नहीं था, जितना अलवर वाला रहा! उसमें गांव था. भीड़ थी, लेकिन दौड़ाकर मारने के सीन इस कदर साफ और तीखे नहीं थे. अखलाक का घर फोकस में था. उसकी बीवी-बेटी डरी हुई रोती हुई थी. लेकिन जिस तरह से दौड़ा-दौड़ाकर पहलू खान को मारा गया उस तरह के सीन दादरी वाले सीनों में नहीं थे. हमारी समस्या घटना नहीं है. वह तो अब पुलिस कानून के हवाले है. हमें ‘कथित विजलांतो’ से भी कोई प्रॉब्लम नहीं क्योंकि वे वही कर सकते हैं जो उन्होंने किया.
हमारी समस्या अलवर की सड़क वाले उन सीनों के मूल्यांकन से संबंधित है जिनमें पहलू खान को चार-पांच युवा दौड़ा-दौड़ाकर मार रहे हैं. हम इन सीनों को क्या समझें? यथार्थ समझें? समझने को समझ सकते हैं क्योंकि रीयल टाइम में खींचे गए वीडियो से आए हैं.
ऐसा लगता है कि एक्शन के सेट की सारी लंबाई-चौड़ाई में कैमरा पहले से ही तैयार था. उसके एंगल भी काफी क्लोज वाले थे. एक कैमरा हो और इस कदर चुस्त हो कि एक भी एक्शन छूटे बिना सब साफ-साफ नजर आए. एकदम फिल्मी से ज्यादा रीयल नजर आए और रीयल फिल्म की तरह मीडिया दिखाए. यहीं से मुझे इन सीनों की टक्कर की हॉलीवुड की कई फिल्में याद आई. भ्रम हुआ कि कहीं कुछ देसी प्रोडय़ूसर, डायरेक्टर, एक्टर वैसी ही हॉलीवुडीय फिल्मों को तो शूट नहीं कर रहे जैसी कि ‘यूट्यूब’ पर उपलब्ध हैं. ये तरह- तरह के ‘मानव-आखेटों’ को दिखाती हैं.
इनमें से एक फिल्मी सीरीज है: ‘हंगर गेम्स’! ये ‘रीयलिटी शो’ की तरह है लेकिन उससे कुछ ज्यादा. ‘पेनम’ राष्ट्र के बारह जिलों में राजधानी ‘विक्टोरियस कपीटोल’ द्वारा विदोहियों को सजा देने के लिए ‘हंगर गेम्स’ (भूख के खेल) आयेजित किए जाते हैं, जिनमें किशोरवय युवा भोजन के लिए एक दूसरे का शिकार खेलते हैं और एक-एक कर मारे जाते हैं या मरवा दिए जाते हैं. यह एक ‘डायस्टोपियन’ समाज की कहानी है. ‘डायस्टोपिया’ शब्द ‘यूटोपिया’ का विलोम है. यूटोपिया यानी स्वपलोक अच्छी-अच्छी दमित कामनाओं को आपूर्त करने वाला लोक जैसे कविता-कहानी यानी फैंटेसी यानी मनोकामनाओं के सपने.
‘डायस्टोपिया’ यानी ‘नि:स्वप’ होने की स्थिति. ऐसा जीवन जिसमें अच्छी बातों के सपनों के बजाय बुरी बातों से भरे किसी दुष्ट समाज के दुस्वप ही बचे हों. ऐसा समाज जॉर्ज आरवेल के ‘1984’ नाम के प्रख्यात उपन्यास में पहली बार दिखा था. अब हंगर गेम्स जैसी फिल्मों बार-बार दिखता है. ऐसा तो नहीं कि हमारा समाज भी एक ‘स्वपहीनता’ की ओर जा रहा है, जहां कुछ नए ‘हंगर गेम्स’ होने लगे हैं. सिर्फ ‘खेल’ के लिए लोग हिंसक होकर एक दूसरे का ‘आखेट’ करने लगे हैं. वो हालीवुडीय ‘हंगर गेम्स’ हैं, तो कहीं ये ‘देसी गेम्स’ तो नहीं जिनको मीडिया बार-बार दिखाकर इनका मारकेट बना रहा है! कहीं हम भी एक ‘डायस्टोपियन’ यानी ‘दुष्ट समाज’ तो नहीं बने जा रहे?
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