सामयिक : नहीं तो रूठ जाएंगे राम
एक जमाने तक यह चौपाई सुनाकर रामचरितमानस के वाचक रामभक्त तुलसीदास के महत्त्व बखान किया करते थे;
सामयिक : नहीं तो रूठ जाएंगे राम |
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर.
तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक देंय रघुवीर..
श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हुए समाज को राम के जीवन आदर्श याद दिलाते थे; उन पर चलने के लिए प्रेरित करते थे, किंतु अब वाचक तो वाचक, पूर्णिमा-अमावस्या स्नान दर्शन के लिए पैदल ही खिंचे चले आने वाले भी शायद भूल चुके हैं कि उनकी जिंदगी में मानिकपुर, मैहर और चित्रकूट का क्या महत्त्व है. यदि आस्थावानों की आस्था सच्ची होती, तो इनका हाल-बेहाल न होता; चित्रकूट की मंदाकिनी नदी पर विकास की नई चुनौतियां न होतीं; मैहर में सीमेंट के बजाय, प्रकृति को समृद्ध करने वाली फैक्टरी लगी होती; मानिकपुर ही नहीं, समूचे बुंदेलखंड के विकास का मॉडल कुछ और होता.
उल्लेखनीय है कि ये तीनों स्थल, बुंदेलखंड में आस्था के बड़े केंद्र हैं. यहां के पहाड़, जंगल और नदियां ही इन स्थलों की शक्ति रहे हैं. वनवास के दौरान श्रीराम, लक्ष्मण और देवी सीता ने इन्हीं शक्तियों से शक्ति पाई. किंतु बीते कुछ वर्षो से यह शक्ति लगातार क्षीण हो रही है. केन, बेतवा, धसान जैसी महत्त्वपूर्ण नदियां थक रही हैं. स्रोत से शुरू हुई जलधारा अब नदियों के अंतिम छोर तक नहीं पहुंच रही है. चित्रकूट का मनप्राण मंदाकिनी का प्रवाह भी अब मंद पड़ गया है. मंदाकिनी नदी की 30 किमी तक सूख गई है. मंदाकिनी की आकर्षित करने वाली नीलिमा अब कालिमा में बदल चुकी है. मंदाकिनी के घाट हर आने-जाने वाले से सवाल करते नजर आते हैं. यहां अभी राम का मंदिर भी है; आने-जाने वालों की भीड़ भी है; लेकिन राम की पंचवटी नहीं है.
पर्यावरण कुम्हला रहा है. नदी में लगने वाले वाला हर स्नान अपने साथ तीर्थयात्रियों का नदी संसर्ग तो लाता है, लेकिन मेला गुजर जाने के बाद ठोस कचरे का एक अंबार भी लाता है. ऐसा क्यों हैं? ऐसा इसलिए है चूंकि पर्यावरण और ग्राम विकास का काम करने वालों संस्थानों ने ही नदी के प्रवाह मार्ग पर कब्जा कर लिया है. बाड़ ही खेत को खाने लगी है. अपनी मनशुद्धि के लिए मंदाकिनी किनारे आने वाले भक्तों द्वारा छोड़े गए कचरे ने मंदाकिनी की ही शुचिता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. मंदाकिनी में मिलने वाली छोटी धाराएं व झरने सूख गए हैं. ये धाराएं खुद नहीं सूखीं. इनके जल को नियमित रखने वाले पहाड़ व जंगल पर आए संकट ने इन्हें संकटग्रस्त बना दिया है.
पहले बांदा, हमीरपुर और महोबा ही धरती का सीना चाक करने के लिए बदनाम थे, अब चित्रकूट भी बदनामी के इसी रास्ते पर तेजी से चल पड़ा है. मंदाकिनी के एक ओर शिवरामपुर व पुरवा तरौहा और दूसरी ओर लोढवारा और छिपनी के पहाड़ों का जंगल पिछले 50 वर्षो में नष्ट हो गया है. पहाड़ों के बगल में लगे बड़े-बड़े क्रेशरों की कतारें अपना काम बेरोक-टोक कर रही हैं. दिलचस्प है कि लोढवारा-छिपनी के एक पहाड़ पर एक ओर तो नाबार्ड पिछले 03 साल से वाटरशेड की परियोजना चला रहा है, दूसरी ओर जिलाधिकारी ने उसी पहाड़ का खनन पट्टा आवंटित कर पानी सोखने का लाइसेंस दे दिया है.
यह विरोधाभास प्रमाण है कि प्रशासनिक स्तर पर आपसी तालमेल का अभाव किस तरह बर्बादी का कारण बन रहा है. सूर्यकुंड की पहाड़ी का भी यही हाल है. पहले बुंदेलखंड के जंगलों पे डकैतों ने डाका डाला. अब ठेकेदार डाल रहे हैं. मंदाकिनी किनारे के कई दशक पुराने हरे-भरे पेड़ लकड़ी माफिया और प्रशासनिक भ्रष्टाचार व प्रकृति के प्रति संवेदनहीनता की भेंट चढ़ चुके हैं. पंचायतें भी इसमें शामिल हैं.
इलाहाबाद से कर्वी जाने के रास्ते पर पड़ने वाले बरगढ़ फॉरेस्ट रेंज मे दो दशक पहले तक प्रति वर्ष 7500 बोरे तेंदू पत्ता निकलता था. आज इसकी मात्रा तीन से चार हजार बोरे प्रति वर्ष हो गई है. मानिकपुर फॉरेस्ट रेंज में 40 हजार घनमीटर लकड़ी, 35 लाख बांस, 20 हजार बल्लियां और 20 से 25 हजार क्विंटल खैर मिला करता था. यह आंकड़ा 1983 के वन विभाग द्वारा दी जाने वाली लकड़ी का है. अब जंगल की बदहाली इसी से समझी जा सकती है कि वन विभाग ने यहां अपना लकड़ी डिपो ही खत्म कर दिया है. सरकारी तौर पर नदी-पानी बचाने की जो कुछ कोशिशें शुरू हुई; वे इतनी अनियोजित व अनिश्चयात्मक रहीं कि नतीजा सिफर रहा.
भारत सरकार की रेनफेड अथॉरिटी का आरोप गलत नहीं कि बुंदेलखंड पैकेज का पैसा सही समय पर खर्च नहीं किया गया. सरकार के पास तो नदियों की वस्तुस्थिति के नामवार रिकॉर्ड भी नहीं है. कई नदियां तो समाज के लिए भी बेनामी होती जा रही हैं. कर्वी के सर्वोदय सेवाश्रम ने छोटी नदियों के पुनरोद्धार की छोटी पहल शुरू की जरूर. स्थानीय आबादी गरीब-गुरबा होने के बावजूद अपनी मेहनत व पसीना लगाने से पीछे नहीं हटी, लेकिन सफलता अभी अधूरी है. संभवत: मनरेगा के तहत नदी पुनरोद्धार की कोशिश का चित्रकूट पहला नमूना होता, किंतु प्रशासन को यह रास नहीं आया. ये कुछ ऐसे हालात हैं, जो मंदाकिनी के प्रवाह मार्ग पर विपन्नता का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं.
मंदाकिनी निहार रही है कि कोई आए और उसे मलिन होने से बचा ले; उसे उसका प्राकृतिक प्रवाह लौटा दे. क्या कोई मंदाकिनी की पुकार सुनेगा? क्या मंदाकिनी के स्नानार्थी अपनी बंद आंखें खोलेंगे ? क्या वे सोचेंगे कि वे मां मंदाकिनी को मलीनता नहीं, निर्मलता पसंद है. मलिन होने से मां लगातार बीमार हो रही है. मां बीमार हुई, तो चित्रकूटवासी भी सेहतमंद नहीं रह सकेंगे. मां मंदाकिनी हमें निर्मल और शीतल करती है, तो कम-से-कम हम तो अपना कचरा मां मंदाकिनी और श्री राम की आश्रयस्थली रहे चित्रकूट में न डालें. यदि नहीं, तो उन्हें सोचना होगा कि रामनवमी का स्नान पर्व मनाने भविष्य में वे कहां जाएंगे? पूर्णिमा का मेला कहां लगेगा? क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
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