विकास दर : ज्यादा जरूरी है खुशहाली

Last Updated 23 Mar 2017 03:05:42 AM IST

बीस मार्च को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय खुशहाली दिवस के अवसर पर ‘वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2017’ जारी की है.


विकास दर : ज्यादा जरूरी है खुशहाली

155 देशों की इस सूची में भारत पिछले वर्ष की तुलना में चार पायदान फिसल कर 122वें स्थान पर पहुंच गया है. इस रिपोर्ट में दुनिया का सबसे खुशहाल देश नाव्रे बताया गया है. वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट,  2017 में सबसे निचले पायदान पर सीरिया और यमन हैं यानी इन देशों में सबसे कम खुशहाली है. स्थिति यह है कि खुशहाली की नई रैंकिंग के बाद हमारा देश खुशहाली के मामले में चीन, पाकिस्तान और नेपाल से भी पिछड़ गया है.

इस रिपोर्ट में चीन का 79वां, पाकिस्तान का 80वां, नेपाल का 99वां, बांग्लादेश का 110वां और श्रीलंका का 120वां स्थान रहा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने खुशहाल देशों की रैंकिंग करते समय जिन पैमानों को ध्यान में रखा है, उनमें प्रति व्यक्ति आय, सकल घरेलू उत्पाद, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा, उदारता, आशावादिता, सामाजिक समर्थन, सरकार और व्यापार में भ्रष्टाचार की स्थिति शामिल हैं. विभिन्न देशों की खुशहाली से संबंधित इस रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि देश की जिस तेजी से विकास दर बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से लोगों की खुशियां नहीं बढ़ रहीं. यह कोई छोटी बात नहीं है कि नोटबंदी के बाद भी वर्ष 2016-17 की तीसरी तिमाही यानी अक्टूबर-दिसम्बर, 2017 में विकास दर 7.1 फीसद बढ़ी और विश्व बैंक का कहना है कि वर्ष 2017 में सर्वाधिक विकास दर भारत की ही होगी. लेकिन बढ़ती विकास दर के दूसरी ओर देश के लोगों की सामाजिक सुरक्षा, शासकीय स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा की स्थिति चिंताजनक है. देश के 80 फीसद से अधिक लोगों को सामाजिक सुरक्षा की छतरी उपलब्ध नहीं है.

आम आदमी के धन का एक बड़ा भाग जरूरी सार्वजनिक सेवाओं, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा में व्यय हो रहा है. इस कारण बेहतर जीवन स्तर की अन्य जरूरतों की पूर्ति में वे बहुत पीछे हैं. चूंकि तेज आर्थिक विकास ने करोड़ों भारतीयों में बेहतर जिंदगी की महत्त्वाकांक्षा जगा दी है, ऐसे में जब देश के करोड़ों लोगों को उपयुक्त सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ एवं शिक्षा सुविधाएं गुणवत्तापूर्ण रूप से नहीं मिल पा रही हैं, तो उनकी निराशाएं बढ़ती जा रही हैं. वैश्विक संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में भ्रष्टाचार और घूसखोरी का जो ताजा अध्ययन मार्च,  2017 में प्रकाशित किया है, उसमें भारत को सर्वाधिक घूसखोरी वाला देश बताया गया है. कहा गया है कि देश के 69 फीसद को पिछले साल 2016 में सरकारी सेवाओं के उपयोग के लिए घूस देना पड़ी. ऐसे में हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि देश में विकास का मौजूदा रोडमैप लोगों को खुशियां देने में बहुत पीछे है. वस्तुत: देश में हैप्पीनेस को आगे बढ़ाने के लिए खुशहाली से संबद्ध मनोवैज्ञानिक खोजों के निष्कषरे को भी ध्यान में रखना होगा. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की मनोवैज्ञानिक सोंजा ल्यूबोमिस्र्की के शोध अध्ययन का जो प्रकाशन हुआ है, उससे पता चलता है कि जहां कुछ हद तक जीवन की परिस्थितियां खुशी को तय करती हैं, वहीं खुशी का बहुत बड़ा हिस्सा हम खुद अपने प्रयासों से प्राप्त कर सकते हैं.

ल्यूबोमिस्र्की के निष्कषरे के मुताबिक परोपकार और आशावादी विचारों से खुशी बढ़ती है. ऐसे में सरकार द्वारा भी खुशी बढ़ाने वाले इन आधारों को आगे बढ़ाना होगा. देश के अधिकांश लोग अपनी जरूरतों की पूर्ति और पश्चिमी संस्कृति की दौड़ में अपने पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के सुख-संतोष से वंचित हो रहे हैं. परिवारों में तनाव बढ़ रहे हैं. संस्कारों में कमी आ रही है, लोगों में निराशा की प्रवृत्ति बढ़ रही है. देश के सभी लोगों तक यह बात पहुंचाई जानी होगी कि सिर्फ धन के ढेर लगाने से ही खुशहाली नहीं आती, केवल धन ही धन की कमाई में अपने पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भूलने से वास्तविक खुशहाली दूर हो जाती है.

परिवार में दबाव से नहीं अपितु प्रेम और संस्कार की बदौलत ही खुशियों को संजोकर रखा जा सकता है. देश में खुशहाली बढ़ाने के लिए वर्ष 2017 में यूएनओ द्वारा तैयार खुशहाल देशों की पहली पंक्ति में स्थान पाने वाले देशों की तरह हमें भी एक ओर आम आदमी की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति और दूसरी ओर सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों से सीख लेना होगी. देश में नैतिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करने के लिए ठोस और रणनीतिक प्रयासों की डगर पर आगे बढ़ना होगा. चाहे 2017 की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में भारत बहुत निचले पायदान पर है, लेकिन अब जो आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य उभरते हुए दिखाई दे रहा है, उसके आधार पर भारत में खुशहाली बढ़ने की संभावनाएं बढ़ गई हैं.

निश्चित रूप से नोटबंदी के बाद वर्ष 2017 की शुरुआत में देश में काला धन नियंत्रण के नये परिदृश्य से देश के आम आदमी को आर्थिक-सामाजिक लाभ मिलने की संभावना बढ़ गई है. 17 मार्च, 2017 को घोषित स्वास्थ्य नीति के तहत अब स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 फीसद धन खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है, जो अभी जीडीपी का 1.04 फीसद है. साथ ही, देश के 80 फीसद लोगों का इलाज सरकारी अस्पतालों में मुफ्त होगा.

ऐसे में देश में स्वास्थ्य का स्तर बढ़ेगा और लोगों की जीवन प्रत्याशा बढ़ेगी. इसी तरह वर्ष 2017 की शुरुआत से सरकार ने अपनी नीतियों को जिस तरह ग्रामीण भारत और गरीबों पर केंद्रित किया है, उसका लाभ भी आम आदमी को मिलेगा. इतना ही नहीं स्वच्छ भारत अभियान के तहत सरकार गरीबों के लिए शौचालय बनवाने और गरीबों को मुफ्त गैस सिलेंडर देने की डगर पर जिस तेजी से बढ़ी है, उसका प्रभावी लाभ भी बड़ी संख्या में लोगों को मिलेगा. ऐसे में हम आशा करें कि वर्ष 2017 में आर्थिक-सामाजिक कल्याण के विभिन्न कदमों से अगले वर्ष संयुक्तराष्ट्र द्वारा तैयार की जाने वाली वैश्विक हैप्पीनेस सूची में भारत कई पायदान ऊपर पहुंचा दिखाई दे सकेगा.

जयंतीलाल भंडारी
लेखक


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