मुद्दा : विकास का खतरनाक रूप
विकास के अर्थ बहुआयामी धारणाओं से जुड़ते हैं, लेकिन वर्तमान युग में यह धारणा एक छोटे से दायरे में सिमट कर रह गई है.
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इतना ही नहीं विकास की एक परिवर्तित परिभाषा से भी रू-ब-रू कराए जाने का प्रयास किया जा रहा है. विश्व बैंक की मानें तो स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी वगैरह जैसी मूलभूत सुविधाएं समान रूप से नागरिकों को उपलब्ध कराना ही विकास है.
वास्तव में, विकास का उद्देश्य मानव के जीवन स्तर को बेहतर करना ही होता है, लेकिन उसके मूल में प्रकृति का भी साथ होता है क्योंकि हमारा पर्यावरण स्वच्छ रहेगा तभी हमारा स्वास्थ्य भी बेहतर रह सकेगा. लेकिन बदकिस्मती से भारत में विकास की जो अवधारणा है, उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है. दरअसल, हमारे यहां कंकरीट से बनी सड़कें और बहुमंजिला इमारतों को ही विकास समझा जाता है, जिसमें पर्यावरण को पूरी तरह नजरअंदाज किया जाता है. गैरसरकारी संस्था ‘इंडिया स्पेंड’ के मुताबिक भारत के शहरों में गर्मी का प्रकोप लगातार बढ़ता जा रहा है. यदि प्रमुख शहरों के वनाच्छादन और निर्माण क्षेत्र पर आधारित रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं.
अहमदाबाद में पिछले बीस वर्षो में वनाच्छादन 46 फीसद से घटकर 24 फीसद रह गया है, जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 फीसद की वृद्धि हुई है. कोलकाता की बात करें तो पिछले बीस वर्षो में वनाच्छादन 23.4 फीसद से गिर कर 7.3 फीसद ही रह गया है, जबकि निर्माण क्षेत्र में 190 फीसद का इजाफा दर्ज किया गया है. वर्ष 2030 तक यहां के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37 फीसद हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में रह जाएगा. भोपाल में पिछले 22 वर्षो में वनाच्छादन 66 फीसद से घटकर 22 फीसदी रह गया है, और 2020 तक यह नौ फीसद रह जाएगा. यह अलहदा है कि मध्य प्रदेश अभी भी अधिकतम वनाच्छादन वाला राज्य है. राजधानी दिल्ली में भी वनाच्छादन का हिस्सा मात्र 5.73 फीसद है. आम तौर पर स्मार्ट शहरों को हमने कंकरीट का शहर मान लिया है.
इन शहरों में शिक्षा, बेहतर जलवायु, शुद्ध वायु आदि की अनदेखी बदस्तूर जारी है, जबकि चौड़ी और पक्की सड़कें, बहुमंजिला इमारतें और कंकरीट से बने अनेकों पुलों पर ही जोर दिया जाने लगा है. लेकिन वे इस चकाचौंध में अपनी और आने वाली पीढ़ी के बेहतर स्वास्थ्य और जीवन-सुरक्षा को नजरअंदाज कर जाते हैं. यही सूरत-ए-हाल गांवों में भी देखने को मिल रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के मकानों और पक्की सड़कों के ज्यादा होने से विकसित गांव की संज्ञा दे दी जाती है.
विकसित देशों ने विकास और पर्यावरण में बेहतर संतुलन बनाए रखा है, जबकि भारत जैसे देश विकास के इस खेल में जमीन पर कंकरीट की परतें बिछा रहे हैं, जिसका नतीजा है तापमान में वृद्धि. यह तापमान जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. हमारी समस्या यह है कि हम पश्चिम से जीवनशैली तो सीखते हैं, लेकिन विकास मॉडल नहीं अपनाते. फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों के उस विकास मॉडल को अपनाने की जरूरत है, जिसमें प्रकृति की सुरक्षा का भी पूरा ख्याल रखा गया है.
दरअसल, गांवों या छोटे शहरों में मूलभूत सुविधाओं के साथ-साथ रोजगार की कमी होती है. लिहाजा, लोग बेहतर सुविधा और रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. इसका प्रभाव यह हो रहा है कि गांवों की आबादी तेजी से लगातार कम हो रही है. 2011 जनगणना के मुताबिक केवल चार हजार 682 गांव ऐसे हैं, जिनकी आबादी दस हजार या उससे ऊपर है, इसलिए सरकार इन पर तवज्जो नहीं देती.
पलायन के कारण शहरों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है. इसलिए इनकी सुविधाओं को ध्यान में रखकर कंकरीट के खंभों पर फ्लाईओवर और मेट्रो की पटरियों के जाल बिछाए जाते हैं जबकि नीचे कोलतार से बनी सड़कों पर बसें दौड़ाई जाती हैं. दिल्ली, मुंबई, जयपुर के बाद पटना और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में कंकरीट के खंभों के ऊपर ट्रेन दौड़ाने की तैयारी चल रही है. जाहिर है, प्राकृतिक जंगल की जगह कंकरीट और कोलतार के मानव निर्मिंत जंगल ले रहे हैं. सवाल है कि क्या विकास की असली कसौटी यही है? यदि जवाब हां में है, तो यह विकास का खतरनाक स्वरूप है.
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