इसमें आश्चर्य कैसा!
चुनाव परिणाम आने के पहले एक्जिट पोल ने इसकी दिशा दे दी थी. इन चुनाव परिणामों से केवल उनको ही आश्चर्य हुआ होगा जो धरातली वास्तविकता से परे अपने राजनीतिक विचारों के मद्दे नजर पूर्व आकलन कर रहे थे.
चुनाव परिणाम में आश्चर्य कैसा |
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को लें तो भाजपा की ऐसी विजय से बहुत लोग विस्मित हैं. वे यह नहीं सोचते कि परिवार और पार्टी में इतनी बड़ी कलह और कानून और व्यवस्था के स्तर पर विफल सरकार को जनता क्यों दोबारा सत्ता में वापस लाएगी जबकि उसके पास विकल्प मौजूद हैं. सत्ता में रहते वक्त हमेशा नेतागण अपनी क्षमता और लोकप्रियता का जरूरत से ज्यादा आकलन करते हैं और उनके आसपास के लोग उनको और आकाश में चढ़ाने की भूमिका निभा देते हैं. अखिलेश यादव के साथ ऐसा ही हुआ है. उनके सबसे बड़े सलाहकार रामगोपाल यादव ने उन्हें प्रधानमंत्री मैटेरियल तक घोषित कर दिया. चुनाव में जय-पराजय होती रहती है, लेकिन अखिलेश यादव ने जिस ढंग से विद्रोह करके पूरी पार्टी को अपने एकछत्र साम्राज्य में लाया और स्वयं अपनी पत्नी डिंपल यादव को मुख्य प्रचारक बना दिया, उसके पीछे भाव तो यही था न कि इन दोनों की लोकप्रियता इतनी है कि विजय के लिए और किसी की आवश्यकता भी नहीं. इसमें उन्होंने अपने पिता तक को चुनाव प्रचार से वानप्रस्थ लेने को विवश कर दिया. कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन का भी कोई तार्किक आधार नहीं था. यह सोचना कि इससे मुस्लिम मतों के बंटवारे को रोका जा सकेगा गलत आकलन था.
जनता को यदि समाजवादी पार्टी को विजयी नहीं बनाना था तो उसके पास दो विकल्प थे, भाजपा एवं बसपा. बसपा का शासन लोगों ने 2007-12 देखा है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने परिवर्तन का जो नारा दिया वह लोगों को अपील करने लगा. जब मोदी कहते थे कि उत्तर प्रदेश के पास सब कुछ है लेकिन अच्छी सरकार नहीं है तो यह लोगों को अपील करता था. भाजपा ने विजय के लिए अगड़ों और गैर यादव अति पिछड़ी जातियों का समीकरण बनाने की जो कोशिश की वह वाकई सफल रही है. समाजवादी पार्टी के शासनकाल में एक जाति विशेष को पुलिस प्रशासन में जरूरत से ज्यादा तरजीह देने से अन्य जातियां नाराज थीं एवं उनके पास भाजपा विकल्प में रूप में था. हम यह न भूलें कि बसपा में जो विद्रोह हुआ और उससे अति पिछड़े निकले उससे उसकी छवि को धक्का लगा. बसपा ने आरंभ में मुसलमानों एवं दलितों का समीकरण बनाने की कोशिश की. मुसलमानों की आबादी के अनुपात से ज्यादा 100 टिकट दिए, जिससे दूसरी जातियां नाराज हुई. जब मायावती को लगा कि खेल खराब हो रहा है तो उन्होंने फिर पिछड़ी जातियों का सम्मेलन आरंभ किया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. वैसे भी जिन लोगों ने 2007 से 2012 के बीच उनका शासन देखा है उसमें कोई ऐसा आदर्श तत्व नहीं था, जिससे उनके प्रति बहुमत का आकषर्ण हो. मुसलमानों ने भाजपा को हराने के लिए जो रणनीतिक मतदान आरंभ किया उसका असर भी हिन्दुओं पर हुआ.
सबसे अंत में छठे चरण के दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वाराणसी में जनदशर्न के नाम से रोड शो और उसके बाद अंतिम चरण के पूर्व दो दिनों तक वाराणसी में रहना, रोड शो एवं सभाएं करना ऐसी रणनीति थी, जिसने उसके लिए कभी भी अनुकूल न रहे पूर्वाचल में आलोड़न पैदा कर दिया. अन्य राज्यों में उत्तराखंड में पिछले चुनाव में केवल .66 प्रतिशत से कांग्रेस आगे थी. उसे बहुमत भी नहीं मिला था. तो यह परिणाम कभी भी बदल सकता था. हालांकि हरीश रावत ने चुनाव रणनीति में पूरी परिपक्वता का परिचय दिया लेकिन उनकी पार्टी में जो भारी विद्रोह हो चुका था उसकी भरपाई जरा कठिन थी. पंजाब में लोक सभा चुनाव के समय ही मोदी लहर के बावजूद अकाली एवं भाजपा का प्रदशर्न संतोषजनक नहीं था. आम आदमी पार्टी ने 33 विधान सभा सीटों पर और कांग्रेस ने 37 विधान सभा सीटों पर बढ़त पाई थी. उस समय आम आदमी पार्टी चरम लोकप्रियता पर थी. विधान सभा चुनाव आने के पूर्व ही उसकी पार्टी में विभाजन हो गया. वह मालवा क्षेत्र में सिमटी रह गई. इसके विपरीत कांग्रेस संगठन की दृष्टि से उससे आगे थी. वह मांझा और दोआबा में भी मजबूत थी. अकाली-भाजपा सरकार के विरुद्व गुस्से का लाभ उठाने की हालत में वह ज्यादा थी.
नवजोत सिंह सिद्वू का अंतिम समय में कांग्रेस में आना और चुनाव लड़ना भी उसके पक्ष में गया. जो भी हो पंजाब में कांग्रेस की विजय उसके लिए प्राणवायु के समान है. 2013 के बाद पहली बार कहीं वह अपनी बदौलत विजय पाने में सफल हुई है. हालांकि इसमें कैप्टन अमरिंदर सिंह की भूमिका बहुत बड़ी है, जिन्होंने लोगों से भावुक अपील की थी यह उनके जीवन का अंतिम चुनाव है. अन्य दो राज्यों गोवा एवं मणिपुर में को लें तो वहां भी परिणाम अपेक्षा के विपरीत नहीं है. गोवा में संघ के पुराने प्रचार सुहास वेलिंगकर ने गोवा रक्षा मंच बनाया, शिवसेना एवं महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के साथ गठबंधन बनाया और वह भाजपा को कुछ नुकसान पहुंचाने में सफल रही है. वह बहुमत तक नहीं पहुंच पाई. आम आदमी पार्टी ने प्रचार तो बहुत किया लेकिन गोवा में परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों भाजपा एवं कांग्रेस के बीच पैठ बनाना उसके लिए कठिन था. इन दोनों पार्टियों का वहां पुराना संगठन है. यहां तक कि भाजपा वहां कैथोलिक ईसाइयों तक को अपनी नीतियों से साथ रखने में सफल रही है. इस बार मनोहर पर्रिकर के मुख्यमंत्री न होने का असर था. किंतु सबसे बड़ी चिंता कांग्रेस को होनी चाहिए कि आखिर भाजपा के शासन के विरुद्ध असंतोष का भी लाभ वह नहीं उठा सकी और वेलिंगकर के विद्रोह का भी.
मणिपुर में मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को विकल्प की तलाश थी. इस बार एक ओर नगा पीपुल्स फ्रंट ने नगाओं को विकल्प दिया और दूसरी ओर भाजपा ने उत्तर पूर्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर विकल्प देने की कोशिश की. जितनी संख्या में कांग्रेस के लोगों ने पार्टी का परित्याग कर भाजपा का दामन थामा था उससे लग रहा था कि मुख्यमंत्री इकराम ओबीबी सिंह के नेतृत्व को लेकर असंतोष है. नये जिला बनाने के खिलाफ जो बंद हुआ वह भी कांग्रेस के खिलाफ गया.
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