अस्तित्व बचाने की लड़ाई
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है.
कांग्रेस के अस्तित्व बचाने की लड़ाई |
पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में भले ही उसने पंजाब में एक दशक से सत्तारूढ़ अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गठबंधन से सत्ता छीन ली, किन्तु उत्तराखंड में सरकार खोने और उत्तर प्रदेश में हुई दुर्गति के लिए उसके नेताओं के पास कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं है. 1961 के नेहरू युग में मुल्क के 23 में से 21 सूबों में कांग्रेस का राज था.
देश की 95 फीसद आबादी कांग्रेस शासित राज्यों में रहती थी. आज हालत यह है कि एक कर्नाटक को छोड़ कोई अन्य बड़ा राज्य उसके अधीन नहीं है और महज सात प्रतिशित जनसंख्या पर उसका शासन है. दूसरी तरफ भाजपा है जिसका जन्म 1980 में जनता पार्टी के बिखरने पर हुआ था. भगवा पार्टी ने पहली बार 1991 में चार सूबों में सत्ता सुख चखा था. वर्ष 2012 में 14 राज्य में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सरकार थी, जबकि महज आठ में भाजपा और उसके साथियों की. इसके बाद भाजपा का विजय अभियान तेज हो गया. पिछले पांच साल में लोक सभा चुनाव (2014) जीतने के अलावा उसने राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, असम, उत्तराखंड, झारखंड और आंध्र प्रदेश के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से सत्ता छीनी है.
आज कांग्रेस सिमटकर केवल पांच सूबों में रह गई है. उत्तर प्रदेश में एकतरफा जीत के बाद तो मानो पूरे उत्तर भारत में कमल खिल चुका है. इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभा के चुनाव होने हैं और उसके बाद अगले वर्ष कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के. इन छह सूबों में दो (हिमाचल और कर्नाटक) में कांग्रेस की सरकार है जबकि चार में भाजपा की. सभी स्थान पर दोनों दलों की सीधी टक्कर होगी. यदि कांग्रेस अपने बचे गढ़ बचाने में विफल रही तब 2019 के आम चुनाव में टिकना उसके लिए कठिन हो जाएगा. अब तक देश में हुए कुल 16 आम चुनाव में कांग्रेस ने एक बार 400 से अधिक, पांच बार 300 से ज्यादा, तीन बार 200 से ज्यादा तथा छह बार सौ से अधिक सीट जीती हैं. 2014 में पहली बार उसे सौ से कम सीट और मात्र 19.3 प्रतिशत वोट मिले. वैसे 1996 के बाद हुए पांच चुनाव में पार्टी कभी भी तीस फीसद से ज्यादा वोट अर्जित नहीं कर पाई.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 के चुनाव में कांग्रेस के रिकॉर्ड 404 सांसद जीते थे और पिछली बार महज 44. इस प्रकार तीस साल बाद पार्टी को 360 सांसदों का घाटा हुआ है. इतने बड़े उलटफेर के बावजूद पार्टी पर कुंडली मारकर बैठे नेता पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं. बरसों से कांग्रेस पार्टी पर नेहरू-गांधी परिवार का कब्जा है. आंतरिक लोकतंत्र नाममात्र का है. किसी भी राजनैतिक दल में किसी व्यक्ति या परिवार का जादू तभी तक चलता है, जब तक उनमें पार्टी को जिताने की कूव्वत होती है.
आज कांग्रेस के क्षत्रप सोनिया और राहुल गांधी के मोहजाल से मुक्त हो चुके हैं. उन्हें लगने लगा है कि नेहरू-गांधी परिवार में चुनाव जिताने या सत्ता सुख दिलाने का दम नहीं बचा है, इसीलिए पार्टी में बगावत के सुर ऊंचे होते जा रहे हैं. पार्टी के दरकते जनाधार पर काबू पाने के लिए कांग्रेस में दोयम दर्जे के नेता अलग-अलग सुझाव दे रहे हैं. तमाम विरोध के बावजूद असुरक्षा भाव से ग्रस्त कांग्रेस आलाकमान किसी पहल के मूड में नहीं दिखता. उधर, सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है. स्वतंत्रता के बाद देश पर अधिकांश समय कांग्रेस ने राज किया, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव को छोड़कर आज तक नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता प्रधानमंत्री नहीं बन पाया. कहने को मनमोहन सिंह का नाम गिनाया जा सकता है, लेकिन सब जानते हैं कि उन्होंने सिंहासन पर प्रथम परिवार की खडाऊं रखकर ही राज किया है. समय तेजी से बदल रहा है.
आज देश की युवा पीढ़ी किसी परिवार नहीं, प्रतिभा का सम्मान करती है. कांग्रेस ऐसे नेताओं का जमावड़ा बन चुकी है, जिनकी अपनी जड़ नहीं हैं. आलाकमान की कृपा से सत्ता सुख भोगने वाले ये लोग पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के खिलाफ हैं. इस वजह से देश की सबसे पुरानी पार्टी हाशिये पर आ गई है. उसे फिर खड़ा करने के लिए कुछ ऐसे साहसी लोगों की जरूरत है, जो सोनिया और राहुल की आंखों में आंखें डालकर सीधे सवाल कर सकें, संगठन में लोकतंत्र ला सकें. पार्टी में फेरबदल जरूरी है. बदलाव न होने पर कांग्रेस का जनाधार और सिमटना तय है.
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