नजरिया : इनकी तो बात ही कुछ और है

Last Updated 12 Mar 2017 05:01:24 AM IST

आखिरकार पांचों राज्यों के नतीजे अब सबके सामने हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जो आरोप बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पर लगाए, वह बहुत हास्यास्पद लगे.


नजरिया : इनकी तो बात ही कुछ और है

अगर उनके कहे मुताबिक हुआ होता तो पंजाब में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलता. गोवा और मणिपुर में बीजेपी पहले नम्बर पर बहुमत के साथ होती. पर उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के अलावा बाकी तीन राज्यों में ऐसा नहीं हुआ, इसलिए बसपा सुप्रीमो को स्वस्थ मानसिकता से अपनी हार स्वीकार कर लेनी चाहिए. हमारे देश में ही क्या बल्कि पूरी दुनिया में जब दो खिलाड़ी आमने-सामने होते हैं तो एक टीम जीत को प्राप्त करती है तो दूसरी को हारना पड़ता है. खेल समाप्त होने के बाद दोनों टीम के खिलाड़ी एक दूसरे के गले मिलते हैं और अपने-अपने गंतव्य को लौट जाते हैं.

लेकिन बसपा प्रमुख के इस आरोप-प्रत्यारोप को देखकर मुझे मुस्तफा कमाल अतातुर्क पाशा का वह ऐतिहासिक भाषण याद आता है. 22 दिसम्बर 1912 को टर्कीज सेना ने इटली को जीत लिया था और इटली के टोब्रुक शहर के लोगों ने टर्कीज फोर्सेस के ऊपर पत्थर और सड़े हुए अंडे फेंके थे. तब पाशा ने अपनी सेनाओं और इटली के लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि युद्ध में कई बार बहुत प्रतिभाशाली लोगों की भी हार हो जाती है, इसका यह मतलब नहीं कि वह जीवन की सारी लड़ाई हार गए. उन्होंने कहा, ‘अब हम बहुत लड़ चुके, आओ अब हम सब विश्राम करें और एक नये निर्माण के लिए फिर से खड़े हो, जिसमें कोई युद्ध न हो.’ और पाशा ने इटली, लीबिया, आस्ट्रिया इन सभी हारे हुए शासकों को बिना बंदी बनाए ऐसे स्वागत किया जैसे कोई अपने किसी बिछड़े हुए मित्र का स्वागत करता है. बसपा सुप्रीमो को इस ऐतिहासिक घटना से सीख लेनी चाहिए और प्रधानमंत्री मोदी एवं अमित शाह को भी अपने हारे हुए साथियों का ऐसे ही स्वागत करना चाहिए. लोकतंत्र में इसके लिए बहुत खुला स्थान है.

उत्तर प्रदेश में मिले परिणामों से अब एक बात तो बिल्कुल साफ हो गयी कि जाति-पाति, धर्म, धारणा के दरवाजे अब टूट चुके हैं. गांवों में रहने वाला व्यक्ति भी अब घोषणा पत्रों और वादों की राजनीति से आगे जा चुका है. लैपटॉप और मोबाइल फोन उनका मन बदल पाने में सक्षम नहीं रहे. सूचना क्रांति का अगर सबसे ज्यादा फायदा किसी एक व्यक्ति ने उठाया है तो वह हैं हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी. रेडियो पर चलने वाले ‘मन की बात’ ने लोगों का ऐसा मन बदला है कि दो-तिहाई से ज्यादा लोगों का मन मोदी के साथ एकाकार हो गया. दो दशक के अपने पत्रकारीय जीवन में मैंने कई प्रधानमंत्रियों को देखा, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी में जो खतरा मोल लेने की ताकत है, वह शायद मैंने किसी में नहीं पाया. विमुद्रीकरण को लागू करना और इस पूरी मुहिम को सफल बना देना, यह बताता है कि हिन्दुस्तान के लोगों के लिये पीएम मोदी एक सबसे बड़ी उम्मीद हैं. यही कारण है कि ब्रांड मोदी ने केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान के बाहर रहने वाले लोगों के दिलों को बखूबी जीता है. भारतीय पासपोर्ट का वजन पहले से ज्यादा वजनदार हुआ है. ये तब पता चलता है जब हम यूरोप, अमेरिका या किसी अन्य देशों में यात्रा करते हैं.

कहा जाता है कि ‘ग्रेट पावर कम्स विद ग्रेटर रिस्पांसिबिलिटी’. इस जीत के साथ प्रधानमंत्री मोदी की जिम्मेदारियां पहले से कहीं ज्यादा बढ़ चुकी हैं. एक बार फिर से ये जीत सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी की जीत है क्योंकि किसी भी राज्य में उन्होंने मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं दिया था. लिहाजा चुनौतियां वही पुरानी हैं, रोटी, कपड़ा, रोजगार और मकान. अब इन पुरानी चुनौतियों को कैसे नये अंदाज में वह हल करेंगे, यह देखना है. भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ चल रही मुहिम को प्रधानमंत्री मोदी ने एक नये मुकाम तक पहुंचा दिया है, जिसके लिये पूरी दुनिया में खूब वाहवाही मिली और सही में उनके इस प्रयास को नकारा नहीं जा सकता. अगर प्रधानमंत्री मोदी को उनकी सुधारवादी मुहिम के लिये एवं सामाजिक सुधार की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिये कल उनके लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा हो जाये तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. इसलिए कि विमुद्रीकरण के बाद भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जो मुहिम चल रही है, उसे जितना परवान चढ़ाना चाहिए था, उसमें प्रधानमंत्री ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

अलग-अलग राज्यों में छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के चलते लड़ाई सिर्फ राज्य के संसाधनों पर पांच-पांच साल के कब्जे तक सिमित रह गई थी. साथ ही कानून व्यवस्था का काम भी कब्जे की लड़ाई में एक दल को सहयोग पहुंचाने का रह गया था. कहीं न कहीं आम जनता ने इस बंदरबांट के खेल को समझा और क्षेत्रीय पार्टियों को लम्बे अवकाश पर भेज दिया. अब भारतीय जनता पार्टी को सुशासन के रूप में उसी भावना से काम करना चाहिए, जिस भावना से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश में रामराज्य लाने की बात कही थी. तब गांधी के रामराज्य को किसी भी पार्टी या नेता ने साम्प्रदायिकता से नहीं जोड़ा था.

लेकिन बीजेपी जब-जब रामराज्य की बात करती है तो साम्प्रदायिकता का आरोप लगता है, उसे सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है? सिर्फ इसलिए कि कहीं न कहीं कर्म और वचन में अंतर आ जाता है. इस अंतर को पाटने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मोदी पर जाती है. अब जनता पूरी तरह से उनके साथ है. अब न तो राज्य सभा में वह कमजोर होंगे, न राष्ट्रपति का चुनाव समझौता के तहत करना होगा. अब वह उड़ने के लिये तैयार हैं तो उन्हें निश्चित करना होगा कि जनता रूपी एटीसी से उनका संपर्क न टूटे और वह इस बदलाव की बड़ी चाहत को साकार करते हुए लोगों की आंखों में आंखें डालकर एक नई उम्मीद और नया भरोसा पैदा कर सकें. साल 2019 का समय प्रधानमंत्री के लिये एक सुअवसर भी साबित हो सकता है और अभिशाप भी. सुअवसर इन अर्थो में कि वह इससे भी बड़ा व्यक्तित्व बनकर उभरें और अभिशाप तब होगा जब वह जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायेंगे. मेरी शुभकामना है कि वह एक और बड़ी लकीर खींचें जो किसी ने न खींची हो.

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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