मीडिया : तारीफ की कीमत
लखनऊ में छिपे एक आतंकवादी को पुलिस ने जब मार गिराया तो हमारे चैनलों के रिपोर्टरों ने पहले तो पुलिस के अधिकारी को प्रेस ब्रीफिंग करते दिखाया कि किस तरह से आतंकवादी मारा गया. फिर रिपोर्टर तुरंत आतंकवादी के पिता के पास पहुंच गए.
सुधीश पचौरी |
पिता ने अपने मृत आतंकवादी बेटे के बारे में जो आदर्श वचन कहे, चैनलों ने उनको यथावत दिखाया और सराहा. एक पिता के वे वचन चौंकाने वाले थे और साथ ही प्रशंसा के हकदार भी थे. उनके लिए उसे नेताओं तक से प्रशंसा मिली.
हम किस कदर चाहते थे कि एक आतंकवादी के पिता को किसी आदर्श को स्थापित करने का जरा भी अवसर न मिले. पॉपुलर देशभक्ति के मारे हमारे मन कुछ लोगों को एक ‘स्टीरियो टाइप’ में ढालकर देखने के आदी हैं. जब वह ‘स्टीरियो टाइप’ टूटता है तो झटका लगता है. इसीलिए उस पिता की जाती तारीफ कुछ अटपटी-सी लगी. रिपोर्टर किसी जांच पुलिस की तरह पिता पर टूटे दिखे.
जिस तरह के निर्लज्ज और अनादर्शवादी दौर में हम रहे हैं, जिस दौर में परिवारवाद और वंशवाद ही सबसे बड़े मूल्य हैं, जिस दौर में अपने बंदे को बचाने के लिए हर आदमी हर दल कोई कसर उठाके नहीं छोड़ता, उस दौर में अचानक आतंकवादी बन गए एक बेटे का पिता, ‘पिता’ का एक नया आदर्श स्थापित कर रहा है, यह देख झटका सा लगता है. इस पिता ने मारे गए बेटे के बारे में कहा कि ‘जो देश का नहीं हुआ, वह मेरा क्या होगा’ तो मन पुलकित हो गया. उसने उसकी लाश तक लेने से इनकार कर दिया. इसे सुनकर गर्व का भाव महसूस हुआ.
लेकिन इस पिता के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया का ‘ट्रीटमेंट’ कुछ अमानवीय ही लगा. लगता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया ऐसे नाजुक मामलों को डील करने के योग्य नहीं है. पिता का कहना था कि मेरा दर्द कोई नहीं समझ सकता. मैंने बेटे को खो दिया, घर के सामने मजमा है. लेकिन वे आतंकी के बाप को देखने आ रहे हैं. मैने बेटा खोया, लेकिन आंख में आंसू नहीं हैं. इसी बीच एक और आदर्शवादी कहानी मीडिया में नजर आई. मारे गए आतंकवादी को ‘प्रेरित’ करने वाले वायुसेना के एक रिटार्यड अफसर के गिरफ्तार होने पर उसके दो बेटों ने कहा कि वह अपने पिता को पिता मानने से इनकार करते हैं क्योंकि वह आतंकवाद का प्रचार करने का काम करता था. जो देश का नहीं वह हमारा भी नहीं!
देशभक्ति का यह एक नया संस्करण था. यह कहानी भी आतंकवादी को ‘त्यज्य’ और ‘निंद्य’ मानती थी और कायदे से तो यह भी तारीफ के योग्य थी, लेकिन इसकी तारीफ नजर न आई. यह पहली वाली तारीफ पर एक टिप्पणी है. आतंकवाद के प्रति हिकारत की यह एक नई ‘पोजीशनिंग’ थी और मीडिया ने इसे जिस तरह के चकित भाव से दिखाया है वह भी एक नई चीज रही. उस पिता का यह कथन निश्चित ही दर्द से भरा था, कि लोग ये देखने आ रहे हैं कि आतंकी का पिता कैसा होता है? रिपोर्टर जो उस पिता से बात करते दिखते थे, बार-बार यही पूछते थे कि क्या आपको मालूम था कि वह आतंकवाद के रास्ते पर जा चुका है? कहने की जरूरत नहीं कि इस कहानी को बनाने वाले मीडिया की भाव-हीनता, असावधानी और बातचीत में एक हमदर्द भाषा की कमी किसी को भी व्यथित कर सकती है. जिस तरह उसके पिता के घर के आगे तमाशबीन जुटे कि देखें तो एक आंतकी का बाप कैसा होता है, उसी भाव से मीडिया भी इस पिता से बात करता दिखा.
कहने की जरूरत नहीं कि यह कहानी फिल्म ‘मदर इंडिया’ की कहानी से मिलती-जुलती है. फर्क है तो इतना कि सैफुल्लाह एक जिंदा ‘आतंकवादी’ था, जबकि फिल्म में गांव के साहूकार से बदला लेने की जिद पर अड़ा नरगिस का छोटा बेटा बिरजू एक डाकू था. नरगिस वह मां थी, जिसने अपने दो बेटों को बड़ा करने के लिए में बड़े कष्ट उठाए. एक बेटा सलीके वाला बन गया, लेकिन दूसरा बेटा आवारा बन गया और अंतत: डाकू बन गया. जिस तरह हम मदर इंडिया की मां की कुर्बानी की तारीफ करते हैं, उसी तरह हम इस आतंकवादी के पिता की तारीफ करते हैं और ऐसा करते वक्त हम इस रीयल आतंकवादी को भी एक फिल्म की तरह तो ही देखने लगते हैं.
खेद की बात है कि रीयल को भी एक पिक्चर की तरह ही लिया गया और उसी तरह दिखाया, बनाया गया. और यह सब इस कदर ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ बनाया गया कि उसमें एक पिता का दर्द छिप गया और एक असहज किस्म का आदर्श तारीफ के योग्य बन चला. जिस तरह मदर इंडिया की कहानी में मां की तकलीफ गायब रही इस कहानी में एक पिता की तकलीफ गायब रही.
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